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________________ 502 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन चतुर्थ गुणस्थानवर्ती व्यक्तियों में वासनाओं एवं कषायों के आवेगों का प्रकटन तो होता है और वे उन पर नियंत्रण करने की क्षमता नहीं रखते हैं, मात्र उनकी वासनाओं एवं कषायों में स्थायित्व नहीं होता। वे एक अवधि के पश्चात् उपशान्त हो जाती हैं । जैसे तणपंज में अग्नि तीव्रता से प्रज्ज्वलित होती है और उस पर काबू पाना भी कठिन होता है, फिर भी एक समय के पश्चात् वह स्वयं ही उपशान्त हो जाती है, किन्तु जब तक व्यक्ति में कषायों पर नियंत्रण की क्षमता नहीं आ जाती, तब तक वह पाँचवें गुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता है। इस गुणस्थान की प्राप्ति के लिए अप्रत्याख्यानी (अनियंत्रणीय) कषायों का उपशान्त होना आवश्यक है। जिस व्यक्ति में वासनाओं एवं कषायों पर नियंत्रण करने की क्षमता नहीं होती, वह नैतिक-आचरण नहीं कर सकता। इसी कारण, नैतिक-आचरण की इस भूमिका में वासनाओं एवं कषायों पर आंशिक-नियंत्रण की क्षमता का विकास होना आवश्यक समझा गया। पंचम गुणस्थानवर्ती साधक साधना-पथ पर फिसलता तो है, लेकिन उसमें संभलने की क्षमता भी होती है। यदि साधक प्रमाद के वशीभूत न हो और फिसलने के अवसरों पर इस क्षमता का समुचित उपयोग करता रहे, तो वह विकास-क्रम में आगे बढ़ता जाता है, अन्यथा प्रमाद के वशीभूत होने पर इस क्षमता का समुचित उपयोग न कर पाने के कारण अपने स्थान से गिर भी सकता है। ऐसे साधक के लिए यह आवश्यक है कि क्रोधादि कषायों की आन्तरिक एवं बाह्य-अभिव्यक्ति होने पर उनका नियंत्रण करे एवं अपनी मानसिक-विकृति का परिशोधन एवं विशुद्धिकरण करे । जो व्यक्ति चार मास के अन्दर उनका परिशोधन तथा परिमार्जन नहीं कर लेता, वह इस श्रेणी से गिर जाता है। 6. प्रमत्त-सर्वविरति-सम्यक्दृष्टि-गुणस्थान (प्रमत्त-संयत-गुणस्थान) - यथार्थ-बोध के पश्चात् जो साधक हिंसा, झूठ, मैथुन आदि अनैतिक-आचार से पूरी तरह निवृत्त होकर नैतिकता के मार्ग पर दृढ़ कदम रखकर बढ़ना चाहते हैं, वे इस वर्ग में आते हैं। यह गुणस्थान सर्वविरति-गुणस्थान कहा जाता है, अर्थात् इस गुणस्थान में स्थित साधक अशुभाचरण अथवा नैतिक-आचरण से पूर्णरूपेण विरत हो जाता है। ऐसे साधक में क्रोधादि कषायों की बाह्य-अभिव्यक्ति का भी अभाव-सा होता है, यद्यपिआन्तरिक-रूप में एवं बीजरूप में वे बनी रहती हैं। उदाहरण के रूप में, क्रोध के अवसर पर ऐसा साधक बाह्य-रूप से तो शान्त बना रहता है तथा क्रोध को बाहर अभिव्यक्त भी नहीं होने देता और इस रूप में वह उस पर नियंत्रण भी करता है, फिर भी क्रोधादि कषाय-वृत्तियाँ उनके अन्तर-मानस को झकझोरती रहती हैं, ऐसी दशा में भी साधक अशुभाचरण और अशुभमनोवृत्तियों पर पूर्णतः विजय प्राप्त करने के लिए दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ने का प्रयास करता रहता है। जब-जब वह कषायादि प्रमादों पर अधिकार कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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