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________________ 476 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन उसका संक्षिप्त सार यह है कि जैन-धर्म सामान्य स्थितियों में, चाहे वह लौकिक हो या धार्मिक, प्राणान्त करने का अधिकार नहीं देता है, लेकिन जब देह और आध्यात्मिकसद्गुण-इनमें से किसी एक को चुनने का समय आ गया हो, तो देह का त्याग करके भी अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक-स्थिति को बचाना चाहिए; जैसे सती स्त्री दूसरा मार्ग न देखकर देहनाशके द्वाराभी अपने सतीत्वकीरक्षाकरती है। देह और संयम-दोनों की समान भाव से रक्षा हो सके, तो दोनों की ही रक्षा कर्त्तव्य है, पर जब एक की ही रक्षा का प्रश्न आए, तो सामान्य व्यक्ति देह की रक्षा पसन्द करेंगे और आध्यात्मिक-संयम की उपेक्षा करेंगे, जबकि समाधिमरण का अधिकारीसंयम कीरक्षाको महत्व देगा। जीवन तो दोनों ही हैं-दैहिक और आध्यात्मिक। आध्यात्मिक-जीवन जीने के लिए प्राणान्त या अनशन की इजाजत है। पामरों, भयभीतों और लालचियों के लिए नहीं। भयंकर दुष्काल आदि आपत्तियों में देह-रक्षा के निमित्त से संयम से पतित होने का अवसर आजाए, या अनिवार्य रूपसे मरण लाने वाली बीमारियों के कारण खुद को और दूसरों को निरर्थक परेशानी होती हो और संयम और सद्गुण की रक्षा सम्भव न हो, तब मात्र समभाव की दृष्टि से संथारे या स्वेच्छामरण का विधान है। 206 यदि सद्गुणों की रक्षा के निमित्त देह का विसर्जन किया जाता है, तो वह अनैतिक नहीं है। नैतिकता की रक्षा के लिए किया गया देह-विसर्जन अनैतिक कैसे होगा? ___जैन-दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन गीता भी करती है। उसमें कहा है कि यदि जीवित रहकर (आध्यात्मिक-सद्गुणों के विनाश के कारण) अपकीर्ति की सम्भावना हो, तो उस जीवन से मरण ही श्रेष्ठ है। 207 काका कालेलकर लिखते हैं कि मृत्यु शिकारी के समान हमारे पीछे पड़े और हम बचने के लिए भागते जाए, यह दृश्य मनुष्य को शोभा नहीं देता। जीवन का प्रयोजन समाप्त हुआ, ऐसा देखते ही मृत्यु को आदरणीय अतिथि समझकर उसे आमन्त्रण देना, उसका स्वागत करना और इस तरह से स्वेच्छा-स्वीकृत मरण के द्वारा जीवन को कृतार्थ करनायह एक सुन्दर आदर्शहै।आत्महत्या को नैतिक-दृष्टि से उचित मानते हुए वे कहते हैं कि इसे हम आत्महत्या न कहें। निराश होकर, कायर होकर या डर के मारे शरीर छोड़ देना एक किस्म की हार ही है। उसे हम जीवन-द्रोह भी कह सकते हैं। सब धर्मों ने आत्महत्या की निन्दा की है, लेकिन जब मनुष्य सोचता है कि उसके जीवन का प्रयोजन पूर्ण हुआ, ज्यादा जीने की आवश्यकता नहीं रही, तब वह आत्म-साधना के अन्तिम रूप के तौर पर अगर शरीर छोड़ दे, तो वह उसका हक है। मैं स्वयं व्यक्तिशः इस अधिकार का समर्थन करता हूँ।208 समकालीन विचारकों में धर्मानन्दकोसम्बी और महात्मा गांधी ने भी मनुष्य को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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