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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
(2)प्रमोद, (3) कारुण्य और (4) माध्यस्थ-इन चार भावनाओं का उल्लेख किया है। मूल आगमों में भी इन भावनाओं के विचार बिखरे हुए हैं। परवर्ती जैन-आचार्यों ने भी इनका सविस्तार विवेचन किया है।
1. मैत्री-भावना-मैत्री-भावना परहित-चिन्ता के रूप में है। 176 अन्य प्राणियों के कल्याण की चिन्ता करना ही मैत्री-भावना है। कोई भी प्राणी दुःख का भाजन न बने, समस्त प्राणी दुःख से मुक्त हो जाएं-इस प्रकार चिन्ता करना मैत्री-भावना है।177 मैत्रीभावना अद्वेष की भावना है। सम्यक् रूप से इसकी भावना करने पर द्वेष का उपशम होता है। यह वैरको उपशांत करने का उपाय है। मैत्री-भावनासे वैमनस्य औरशत्रुता समाप्त होती है। साधक प्रतिदिन यही उद्घोष करता है कि सभी प्राणियों से मेरी मित्रता है, किसी से मेरा वैर नहीं है।178
2. प्रमोद-दूसरों की प्रसन्नता में स्वयं को प्रसन्न मानना-यह मुदिता याप्रमोदभावना है। 179 आचार्य हेमचन्द्र तथा आचार्य अमितगति के अनुसार, प्रमोद-भावना का तात्पर्य गुणीजनों के प्रति आदरभाव, उनकी प्रशंसा और उनको देखकर मन में प्रसन्नता का होना है। प्रमोदभावना का अर्थ है-दूसरे के सुख अथवा दूसरों की उन्नति को देखकर मन में प्रसन्न भाव काआना। 18 प्रमोद-भावना से साधक ईर्ष्या, असूया या अप्रीति से दूर होता है
और अरति का उपशम होता है। प्रमोद-भावनाजन्य हर्ष साधारण जन को होने वाले हर्ष से भिन्न होता है। यह हर्ष प्रशान्त होता है, उसमें मन साम्यावस्था में रहता है, जबकि सामान्य हर्ष उद्वेग या क्षोभयुक्त होता है। उद्वेगयुक्त हर्ष से तो उल्टे यह भावना नष्ट होती है।
3. करुणा-दूसरों के दुःख दूर करने का विचार ही करुणा है। 11 दीन, दुःखी, भयभीत और प्राणों की याचना करने वाले प्राणियों के दुःखों को दूर करने का विचार उत्पन्न होना ही करुणा-भावना है। यही परदुःखकातरता है। दूसरे के दुःख को देखकर हृदय का द्रवित हो जाना-यही करुणा है। करुणा से हिंसक-वृत्ति का उपशम होता है और अहिंसक-वृत्ति का उदय होता है। खेदज्ञता करुणा का लक्षण है। जैन-दर्शन के अहिंसासिद्धान्त का आधार यही करुणा है। करुणा अहिंसा से अधिक व्यापक है। करुणा से संयोजित होकर ही अहिंसा विधायक एवं पूर्ण बनती है।
4.माध्यस्थ (उपेक्षा)- दूसरों के दोषों की उपेक्षा करना माध्यस्थ-भावना है।13 क्रूर कर्म करने वाले, देव और गुरु के निन्दक, आत्मप्रशंसा में रत मनुष्यों के प्रति किसी भी प्रकार का दुर्विचार न लाते हुए समभाव रखना ही माध्यस्थ-भावना है। 184 माध्यस्थ-भावना राग-द्वेष से ऊपर उठने के लिए है।
बौद्ध-परम्परा में चार भावनाएँ- बौद्ध-परम्परा में मैत्री, प्रमोद (मुदिता), करुणा और उपेक्षा (माध्यस्थ) भावना का सविस्तार विवेचन उपलब्ध है। 185 बुद्ध ने इन्हें
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