________________
भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
लिए संघर्ष आवश्यक है और न यह मानता है कि जीओ और जीने दो' का नारा ही पर्याप्त है। उसका सिद्धान्त है-जीवन के लिए जीवन का विनाश नहीं, वरन् जीवन के द्वारा जीवन का विकास या कल्याण (परस्परोपग्र हो जीवानाम् - तत्त्वार्थसूत्र) जीवन का नियम संघर्ष का नियम नहीं, वरन् सहकार का नियम है।
(ब) सभी मनुष्यों की मौलिक समानता पर आस्था-आत्माकी दृष्टि से सभी प्राणी समान हैं, यह जैनदर्शन की प्रमुख मान्यता है। इसके साथ ही जैन-आचार्यों ने मानवजाति की एकता को भी स्वीकार किया है। वर्ण, जाति, सम्प्रदाय और आर्थिक-आधारों पर मनुष्यों में भेद करना मनुष्यों की मौलिक-समता को दृष्टि से ओझल करना है। सभी मनुष्य, मनुष्य-समाज में समान अधिकारों से युक्त हैं। यह निष्ठा साम्ययोग के सामाजिकसन्दर्भका आवश्यक अंगहै। इसके मूल में सभी मनुष्यों को समान अधिकार से युक्त समझने की धारणा रही हुई है। यह सामाजिक-न्याय का आधार है, जो सामाजिक-संघर्ष को समाप्त करता है। समत्वयोग के क्रियान्वयन के चार सूत्र
(1) वृत्ति में अनासक्ति-अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण-यहसमत्वयोग की साधना का प्रथम सूत्र है। अहंकार, ममत्व और तृष्णा का विसर्जन समत्व के सर्जन के लिए आवश्यक है। अनासक्त-वृत्ति में ममत्व और अहंकार-दोनों का पूर्ण समर्पण आवश्यक है। जब तक अहम् और ममत्व बना रहेगा, समत्व की उपलब्धि संभव नहीं होगी, क्योंकि राग के साथ द्वेष अपरिहार्य रूप से जुड़ा हुआ है। जितना अहम् और ममत्व का विसर्जन होगा, उतना ही समत्व का सर्जन होगा। अनासक्ति चैतसिक-संघर्ष का निराकरण करती है एवं चैतसिक-समत्वका आधार है। बिना चैतसिक-समत्व के सामाजिक-जीवन में साम्य की उद्भावना नहीं हो सकती।
(2) विचार में अनाग्रह - जैनदर्शन के अनुसार आग्रह एकांत है और इसलिए मिथ्यात्व भी है। वैचारिक-अनाग्रह समत्वयोग की एक अनिवार्यताहै। आग्रह वैचारिकहिंसा भी है, वह दूसरे के सत्य को अस्वीकार करता है तथा समग्र वैचारिक-सम्प्रदायों एवं वादों का निर्माण कर वैचारिक-संघर्ष की भूमिका तैयार करता है, अतः वैचारिक-समन्वय
और वैचारिक-अनाग्रह समत्वयोग का एक अपरिहार्य अंग है। यह वैचारिक-संघर्ष को समाप्त करता है। जैनदर्शन इसे अनेकान्तवाद या स्याद्वाद के रूप में प्रस्तुत करता है।
(3) वैयक्तिक-जीवन में असंग्रह-अनासक्त-वृत्ति को व्यावहारिक-जीवन में उतारने के लिए असंग्रह आवश्यक है। यह वैयक्तिक-अनासक्ति का समाज-जीवन में व्यक्ति के द्वारा दिया गया प्रमाण है और सामाजिक-समता के निर्माण की आवश्यक कड़ी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org