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________________ जैन-आचार के सामान्य नियम 431 17 जैन-आचार के सामान्य नियम जैन-आचारदर्शन में आचरण के कुछ सामान्य नियम ऐसे हैं, जिनका पालन करना गृहस्थ और श्रमण-दोनों के लिए आवश्यक है। इन नियमों को निम्नलिखित उपशीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है - 1. षट् आवश्यक-कर्म, 2. दस धर्मों का परिपालन, 3. दान, शील, तप और भाव, 4. बारह अनुप्रेक्षाएँ (भावनाएँ), 5. समाधिमरणा षट्आवश्यक-कर्म ___ आवश्यकशब्दके अनेक अर्थ हैं। प्रथम, जोअवश्य किया जाए, वह आवश्यक दूसरे, जो आध्यात्मिक-सदगुणों का आश्रय है, वह आवस्सय (आपाश्रय) है' (संस्कृत के आपाश्रय का प्राकृत रूप भी आवस्सय होता है)। तीसरे, जो आत्मा को दुर्गुणों से हटाकर सद्गुणों के वश्य (अधीन) करता है, उसे भी आवश्यक कहते हैं। इसी प्रकार, जो आत्माको ज्ञानादिगुणों से आवासित, अनुरंजित अथवा आच्छादित करता है, उसे भी आवश्यक कहा है। (संस्कृत के आवासक' का प्राकृत रूप भी आवस्सय बन जाता है)। अनुयोगद्वारसूत्र के अनुसार, षट् आवश्यक गृहस्थ और श्रमण-दोनों के लिए आवश्यक माने गए हैं। उसमें आवश्यक के निम्न पर्यायवाची नाम भी बताए गए हैं- (1) आवश्यक, (2) अवश्यकरणीय, (3) ध्रुवनिग्रह (अनादि कर्मों का निग्रह करने वाला), (4) विशोधि (आत्मा की विशुद्धि करने वाला), (5) षट्क अध्ययन-वर्ग, (6) न्याय, (7) आराधना और (8) मार्ग (मोक्ष का उपाय)। __जैनागमों में आवश्यक-कर्म छह माने गए हैं। वे छह आवश्यक-कर्म इस प्रकार हैं- (1) सामायिक, (2) स्तवन, (3) वन्दन, (4) प्रतिक्रमण, (5) कायोत्सर्ग और (6) प्रत्याख्यान (त्याग)। षडावश्यकों का साधनात्मक-जीवन के लिए क्या महत्व है, इस विषय में पं. सुखलालजी कहते हैं - जिन तत्त्वों के होने से ही मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों के जीवन से उच्च समझा जा सकता है और अन्त में विकास की पराकाष्ठा तक पहुँच सकता है, वेतत्त्वये हैं- (1) समभाव, अर्थात् शुद्ध श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र का सम्मिश्रण, (2) जीवन को विशुद्ध बनाने के लिए सर्वोपरि जीवनवाले महात्माओं को आदर्श के रूप में पसन्द करके उनकी ओर सदा दृष्टि रखना, (3) गुणवानों का बहुमान एवं विनय करना, (4) कर्त्तव्य की स्मृति तथा कर्तव्य-पालन में होने वाली गलतियों का अवलोकन करके निष्कपट-भाव से उनकासंशोधन करना और पुनः वैसी गलतियाँ न हों, इसके लिए आत्माको जाग्रत करना, (5) ध्यान का अभ्यास करके प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को यथार्थ रीति से समझने के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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