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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
के इस कथन में सत्यता का अंश अवश्य है। भगवान् बुद्ध ने भी गृधनाम पर्वत पर जैनभिक्षुओं के कठोर आचरण तथा तपस्यादिदेखकर उन भिक्षुओं के सम्मुख ही इस शारीरिककष्ट देने की पद्धति की आलोचना की थी।
इस आक्षेप का उत्तर कठोर आचरण के मूल्य को समझे बिना नहीं दिया जा सकता, यद्यपि इस प्रयास में हम आक्षेप के मुद्दे से थोड़े दूर होंगे, लेकिन यह आवश्यक है।
जैन आचार-पद्धति के इतिहास में हमने देखा था कि मध्यवर्ती जैन-तीर्थंकरों के युग में आचरण के नियमों में इतनी कठोरता नहीं थी, लेकिन जब मनुष्य में छल और प्रवंचना की वृत्ति अधिक विकसित हो गई, तब महावीर को कठोर नियमों का विधान करना पड़ा। मनुष्य भोगों में आसक्ति रखता है और यदि उस ओर जाने के लिए थोड़ा-सा भी मार्ग मिला, तो वह भोगों में गृद्ध हो आध्यात्मिक-साधना तज देता है। बुद्ध ने आचरण के कठोर नैतिक-नियम नहीं दिए, किन्तु इसका जो परिणाम बौद्ध श्रमण-संस्था पर हुआ, वह हमारे सामने है। उसी पवित्र बौद्ध-संघ की संतान के रूप में वामाचार-मार्ग जैसे अनैतिक और आचारभ्रष्ट सम्प्रदाय का आविर्भाव हुआ। व्यवस्थित कठोर नैतिक-नियमों के अभाव में वैदिक साधु-समाज की क्या स्थिति है, यह छिपा नहीं है। यदि जैन संघव्यवस्था में कठोर नैतिक-नियमों का अभाव होता, तो वह भी पतन के मार्ग में इनसे आगे निकल गई होती।
मन की चंचलवृत्ति जब छल और प्रवंचना से युक्त हो जाती है, तो उसके निरोध के लिए कठोर नैतिक-नियम आवश्यक हो जाते हैं। इन्द्रियाँ अपने विषयों की प्राप्ति के लिए बिना विवेक के प्रयत्न करती रहती हैं। यदि कठोर नैतिक-नियमों के पालन के द्वारा उन पर संयम नहीं रखा जाए, तो वे व्यक्ति का अहित कर डालती हैं।
___ कठोर आचार या शारीरिक-कष्ट सहने का दूसरा पहलू है-आत्मा और शरीर के एक मानने की भ्रान्ति को दूर करना। आध्यात्मिक-साधना में यह आवश्यक है कि आत्मा को शरीर से भिन्न समझा जाए। सामान्य रूप से लोग शरीर और आत्मा को पृथक् नहीं मानते और शारीरिक-पीड़ा और सुख को वास्तविक मान बैठते हैं । आत्मविकास की आचार-पद्धतियों में आत्मा को शरीर से परे माना जाना आवश्यक है। साधक कठोर नैतिक-नियमों के पालन से उत्पन्न कष्टों को इसलिए सहन करता है कि शारीरिक-कष्ट का उसकी आत्मा से कोई संबंध नहीं, वे उसकी आत्मा को सुखी-दुःखी नहीं कर सकते, इस तथ्यको समझ सके। वह कष्टों को निमंत्रण देकर इस बात की परीक्षा करता रहता है कि वह कितने अधिक रूप में शरीर और आत्मा के द्वैत की बात अपना सका है।
आचरण की कठोरता सापेक्ष है। आचरण का कौन-सा नियम कठोर है, यह नहीं
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