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________________ श्रमण-धर्म 401 सुवासित पदार्थों का उपयोग करना, (8) माल्य-फूलों की माला धारण करना, (9) बीजन-पंखे आदिसे हवा लेना या करना, (10) सन्निधि-दूसरे दिन के लिए भोजन आदि का संग्रह करना, (11) गृहीपात्र-गृहस्थों के बर्तन में भोजन ग्रहण करना, (12) राजपिण्ड-राजा के लिए बनाया गया पौष्टिक भोजन ग्रहण करना, (13) किमिच्छकदान-दानशाला आदि ऐसे स्थानों से आहार ग्रहण करना, जहाँ पूछकर इच्छा अनुसार आहार आदि दिए जाते हों। 14. संबाधन-शरीर के सुख के निमित्त तेल-मर्दन करवाना, (15) दन्तधावन - शोभा के लिए मंजन आदि से दांतों को साफ करना या चमकाना , (16) संप्रश्न-गृहस्थों से उनकी पारिवारिक-बातें पूछना, अथवा अपनी सुन्दरता के विषय में पूछना, (17) देह-प्रलोकन-दर्पण आदिमें अपना रूप देखना, (18) अष्टापदजुआंखेलना, (19) नालिक-चौपड़या पासा आदिखेलना, (20) छत्रधारण-गर्मी या वर्षा आदि से बचने के लिए या सम्मान-प्रतिष्ठा के लिए छत्र आदि धारण करना, (21) चिकित्सा-रोग या व्याधि के प्रतिकार के लिए चिकित्सा करना, (22) उपानह-जूते, खड़ाऊ आदि पहनना, (23) जोत्यारम्भ-दीपक, चूल्हा या ताप आदि सुलगाना (24) शय्यातर-पिण्ड-मुनि जिसके मकान में ठहरा हो, उसके यहाँ से आहार आदि ग्रहण करना (25) आसंदी-बुनी हुई कुर्सी या पलंग आदि पर सोना-बैठना, (26) निषद्याबिना किसी आवश्यक परिस्थिति के गृहस्थ के घर में बैठना, (27) गात्रमर्दन-पीठीउबटन आदि लगाना, (28) गृहीवैयावृत्य-गृहस्थों से किसी प्रकार की सेवा लेना, (29) जात्याजीविका - सजातीय या सगोत्रीय बताकर आहार आदि प्राप्त करना, (30) तापनिवृत्ति- गर्मी के निवारण के लिए सचित्त जल एवं पंखे आदि का उपयोग करना, (31) आतुर-स्मरण-कष्ट में अपने कुटुम्बीजनों का स्मरण करना, (32-38) मूली, अदरक, (शृंगवेर) कन्द, इक्षुखण्ड, मूल (जड़), कच्चे फल और संचित बीजों का उपयोग करना, (39-45) सौंचल नमक, सैन्धव नमक, सामान्य नमक, रोमदेशीय नमक, समुद्री नमक एवं पर्वतीय काला नमक का उपयोग करना, (46) धूपन-शरीर, वस्त्र एवं भवन को धूपआदिसे सुवासित करना (47) वमन-मुख में अंगुली आदिडालकर अथवा वमन की औषधि लेकर वमन करना, (48) वस्तिकर्म-एनीमा आदि लेकर शौच करना, (49) विरेचन-जुलाब लेना (50) अंजन-आँखों में अंजन लगाना (51) दन्त-वर्ण-दांत रंगना और (52) अभ्यंग-व्यायाम करना अथवा कुश्ती लड़ना। सामान्य स्थिति में यह बावन प्रकार का आचरण मुनि के लिए वर्जित है (दशवैकालिक अध्ययन 3)। समाचारी के नियम मुनि के लिए विशेष रूप से पालनीय नियम समाचारी कहे जाते हैं । समाचारी का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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