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________________ श्रमण-धर्म - 9. वर्षा ऋतु के पश्चात् भी यदि मार्ग जीव, जन्तु और वनस्पति से रहित न हो, तो मुनि भ्रमण प्रारम्भ न करे । 10. सदैव निरापद मार्गों से ही गमन करना चाहिए। जिन मार्गों में चोर, म्लेच्छ एवं अनार्य लोगों के भय की सम्भावना हो, अथवा जिस मार्ग में युद्धस्थल पड़ता हो, उन मार्गों का परित्याग करके गमन करना चाहिए। 387 11. यदि प्रसंगवशात् मार्ग में सिंह आदि हिंसक पशु या चोर, डाकू आदि दिखाई दें, तो भयभीत होकर न पेड़ों पर चढ़ना चाहिए, न पानी में कूदना चाहिए और न उन्हें मारने लिए शस्त्र आदि की मन में इच्छा ही करना चाहिए, वरन् शांतिपूर्वक निर्भय होकर गमन करना चाहिए । 12. दिगम्बर-परम्परा के अनुसार, मुनि को मार्ग में चलते समय यदि धूप से छाया में या छाया से धूप में जाना पड़े, तो अपने शरीर का मोरपिच्छि से प्रमार्जन करके ही जाना चाहिए 123 I - इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन मुनि को आवगमन की क्रिया इस प्रकार संपादित करनी चाहिए कि उसमें किसी भी प्रकार की हिंसा की संभावना न हो । ईर्ष्या-समिति की इस समग्र विवेचना में प्रमुख दृष्टि अहिंसा - महाव्रत की रक्षा ही है। हाँ, जैन- परम्परा यह भी स्वीकार करती है कि यदि आवागमन की क्रिया आवश्यक हो और उस स्थिति में अहिंसा का पूर्ण पालन संभव न हो, तो अपवाद-मार्ग का आश्रय लिया जा सकता है। 2. भाषा - समिति - विवेकपूर्ण भाषा का प्रयोग करना भाषा - समिति है । मुनि को सदोष, कर्मबन्ध कराने वाली, कर्कश, निष्ठुर, अनर्थकारी, जीवों को आघात और परिताप देनेवाली भाषा नहीं बोलनी चाहिए; वरन् घबराए बिना, विवेकपूर्वक, समभाव रखते हुए, सावधानीपूर्वक बोलना चाहिए। मुनि को अपेक्षा, प्रमाण, नय और निक्षेप से युक्त हित, मित, मधुर एवं सत्य भाषा बोलना चाहिए । 124 'वस्तुतः, वाणी का विवेक सामाजिक-जीवन की महत्वपूर्ण मर्यादा है। बर्के का कथन है कि संसार को दुःखमय बनाने वाली अधिकांश दुष्टताएं शब्दों से ही उत्पन्न होती हैं। 125 वाणी का विवेक श्रमण और गृहस्थ-दोनों के लिए आवश्यक है। श्रमण तो साधना की उच्च भूमिका पर स्थित होता है, अतः उसे तो अपनी वाणी के प्रति बहुत ही सावधान रहना चाहिए। मुनि कैसी भाषा बोले और कैसी भाषा न बोले, इसकी विस्तृत चर्चा सत्य - महाव्रत के संदर्भ में की जा चुकी है। 3. एषणा - समिति - एषणा का सामान्य अर्थ आवश्यकता या चाह होता है। साधक गृहस्थ हो या मुनि, जब तक शरीर का बन्धन है, जैविक आवश्यकताएं उसके साथ लगी रहती हैं, जीवन धारण करने के लिए आहार, स्थान आदि की आवश्यकताएँ बनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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