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________________ श्रमण-धर्म 385 प्रसारण आदिशारीरिक क्रियाओं से निवृत्ति कायगुप्ति है। 110 उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार, श्रमण उठने, बैठने, लेटने, नाली आदि लांघने तथा पाँचों इन्द्रियों की प्रवृत्ति में शरीर की क्रियाओं का नियमन करे। 111 उत्तराध्ययनसूत्र में मुनि-जीवन के लिए इन तीन गुप्तियों का विधान अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्ति होने के लिए है। 112 श्रमण-साधक इन तीनों गुप्तियों के द्वारा अपने को अशुभ प्रवृत्तियों से दूर रखे, यही इसका हार्द है। संक्षेप में, राग-द्वेष आदि से निवृत्ति मनोगुप्ति है, असत्य वचन से निवृत्ति एवं मौन वचनगुप्ति है और शारीरिक-क्रियाओं से निवृत्ति तथा कायोत्सर्ग कायगुप्ति है।113 बौद्ध-परम्परा और गुप्ति- बौद्ध-परम्परा में मन, वचन और शरीर की गुप्ति का विधान है। सुत्तनिपात में तो जैन–परम्परा के समान ही गुप्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। बुद्ध ने भी श्रमण-साधक को मन, वचन और शरीर की क्रियाओं के नियमन का निर्देश किया है। बौद्ध-परम्परा में मन, वचन और काया की तीन क्रियाओं के लिए जैनपरम्परा के समान त्रिदण्ड शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, जबकि इनके लिए स्थानांगसूत्र में मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड का प्रयोग हुआहै। 115 बुद्ध भी इन तीनों को स्वीकारतो करते हैं, लेकिन उन्होंने त्रिदण्ड के स्थान पर तीन कर्म शब्द का प्रयोग किया है। दोनों परम्पराओं में शाब्दिक-अन्तर भले हो, लेकिन मूल मन्तव्य दोनों परम्पराओं का एक ही है । अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध ने तीन शुचि भावों एवं तीन प्रकार के मौन के रूप में वस्तुतः जैनपरम्परा की तीन गुप्तियों का ही विधान किया है। बुद्ध कहते हैं - भिक्षुओं ! आदमी प्राणीहिंसा से विरत रहता है, चोरी से विरत रहता है, कामभोग संबंधी मिथ्याचार से विरत रहता है, यह शरीर की शुचिता है। भिक्षुओं! आदमी झूठ बोलने से विरत रहता है, चुगली खाने से विरत रहता है, व्यर्थ बोलने से विरत रहता है, अक्रोधी होता है तथा सम्यक्दृष्टि वाला होता है, यह मन की शुचिता है। 116 वस्तुतः, इस प्रकार बुद्ध भी श्रमण-साधक के लिए मन, वचन और शरीर की अप्रशस्त प्रवृत्तियों को रोकने का निर्देश करते हैं। 117 वैदिक-परम्परा और गुप्ति-वैदिक-परम्परा में संन्यासी के लिए त्रिदण्डी शब्द का प्रयोग हुआ है। दत्त का कहना है कि केवल बांस के डंडी के धारण से कोई संन्यासी या त्रिदण्डी नहीं हो जाता। त्रिदण्डी वही है, जो अपने आध्यात्मिक-दण्ड रखता है। 118 वस्तुतः, तीन आध्यात्मिक-दण्डों का तात्पर्य मन, वचन और शरीर के नियंत्रण से ही है। त्रिदण्डी शब्द का मूल आशय यही है। मन, वचन और शरीर की क्रियाओं का नियमन करने वाला ही त्रिदण्डी है। ____ जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों परम्पराओं में शाब्दिक-दृष्टि से चाहे अन्तर हो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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