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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
द्वारा भारी दण्ड दिया जाना। अतः, मनुष्य को परस्त्रीगमन नहीं करना चाहिए।"49 5. परिग्रहपरिमाणवत
श्रमण-साधक के लिए तो सम्पूर्ण परिग्रह के परित्याग का विधान है, लेकिन गृहस्थ-साधक के लिए सम्पूर्ण परिग्रह का परित्याग सम्भव नहीं, अतः गृहस्थ को परिग्रहासक्ति से बचने के लिए परिग्रह की सीमारेखा निश्चित करनी होती है। यही व्रतीगृहस्थ का परिग्रहपरिमाणव्रत कहलाता है। परिग्रह जीवन-निर्वाह का आवश्यक साधन है, लेकिन यह साधन यदि साध्य ही बन जाए, तो साधना की सम्भावना ही नहीं रहती। जीवन में प्रगति किसी भी एक आदर्श की ओर हो सकती है, लेकिन जब जीवन में विभिन्न आदर्शों की स्थापना एकसाथ कर ली जाती है, तो निश्चय ही जीवन-पथ विकृत हो जाता है और साधक को किसी भी लक्ष्य पर पहुँचाने में समर्थ नहीं रहता। भौतिक-समृद्धि की उपलब्धि और आध्यात्मिक-विकास-दोनों को एक साथ आदर्श नहीं बनाया जा सकता।
उपासकदशांगसूत्र में व्रती-गृहस्थ के परिग्रहपरिमाणव्रत को इच्छापरिमाण-व्रत भी कहा गया है। आगम-ग्रन्थ में इस नामान्तरण के पीछे एक दृष्टि रही है। वास्तव में, परिग्रह स्वतः में जड़ है, उसमें बाधा उपस्थित करने की सामर्थ्य नहीं। साधना की दृष्टि से परिग्रह की अपेक्षाभी परिग्रहासक्ति, परिग्रह-तृष्णा या परिग्रह-संग्रह की इच्छा ही अधिक बाधक है, क्योंकि वह साधक का अपना मनोभाव है, अतः सूत्रकार ने इसे परिग्रहपरिमाण-व्रत कहने की अपेक्षा इच्छापरिमाणव्रत कहा । एक अल्प-परिग्रही व्यक्ति में भी यदि परिग्रह-इच्छा मौजूद है, तो वह साधना में प्रगति नहीं कर सकता। साधना की दृष्टि से इच्छाका परिसीमन अति आवश्यक है। जैन-नैतिकता इच्छा, तृष्णाया ममत्व के परिसीमन के प्रति अत्यधिक जागरूक है। इच्छा का सम्बन्ध बाह्य-परिग्रह से ही है, अतः उसका परिसीमन भी आवश्यक है। जैन-विचारणा में गृहस्थ-साधक को नौ प्रकार के परिग्रह की मर्यादा निश्चित करनी होती है- (1) क्षेत्र- कृषि-भूमि अथवा अन्य खुला हुआ भूमिभाग, (2) वास्तु-मकान आदि अचल सम्पत्ति, (3) हिरण्य- चाँदी अथा चाँदी की मुद्राएँ, (4) स्वर्ण-स्वर्ण अथवा स्वर्ण-मुद्राएँ, (5) द्विपद-दास-दासी, नौकर, कर्मचारी इत्यादि, (6) चतुष्पद - पशुधन, (7) धन-चल सम्पत्ति, (8)धान्य-अनाजादि, (9) कुप्य - घर-गृहस्थी का अन्य सामान।
अणुव्रत के पाँच अतिचार (दोष) हैं - (1) क्षेत्र एवं वास्तु के परिमाण का अतिक्रमण, (2) हिरण्य-स्वर्ण के परिमाण का अतिक्रमण, (3) द्विपद-चतुष्पद के परिमाण का उल्लंघन, (4) धन-धान्य की सीमा - रेखा का अतिक्रमण, (5) गृहस्थी के अन्य सामान की मर्यादा का अतिक्रमण।
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