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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
स्वीकृति है। वह प्रपत्ति या शरणागति के स्थान पर आत्म-निश्चय है। जैन-दर्शन में अरहंत, सिद्ध, साधु एवंधर्म कीशरण ग्रहण करने की परम्परातो है, लेकिन साधना के क्षेत्र में प्रविष्टि के लिए जो आवश्यक है, वह अभिस्वीकृति (निश्चय) है। बौद्ध-परम्परा एवं गीता के अनुसार शरण-ग्रहण के साथ ही साधना-पथ में प्रवेश माना जाता है। यद्यपि वर्तमान युग में सम्यक्त्व-ग्रहण की यह प्रक्रिया साम्प्रदायिक-मान्यताओं की आग्रहवृत्ति के रूप में रूढ़ हो गई है, तथापि मूलतः इसमें साम्प्रदायिक-अभिनिवेश का अभाव है। यह तो वस्तुतः साधना-आदर्श, साधना के पथ-प्रदर्शक और साधना-मार्ग का चयन है, जिसमें साम्प्रदायिक-अभिनिवेश अनुपस्थित है। दूसरे, साधना के आदर्श, पथ-प्रदर्शक
और मार्ग का स्वरूप भी ऐसा है, जिसमें साम्प्रदायिक-अभिनिवेश की गन्ध भी नहीं आती है। देव और गुरु वैयक्तिकता के नहीं, वरन् आध्यात्मिक-पूर्णताओं और योग्यताओं के परिचायक हैं। धर्म परम्परागत रूढ़ि नहीं, वरन् समत्ववृत्ति पर अधिष्ठित अहिंसा का विचार है। साधना के प्रारम्भ में इन त्रिनिश्चयों का ग्रहण इसलिए आवश्यक है कि आचरण या साधना के क्षेत्र में साधक कहीं भटक न जाए। जिस पथिक को अपने गन्तव्य और गन्तव्यमार्गका परिज्ञान नहो, जिसके साथ कोई योग्य मार्गदर्शक नहो, वह क्या निर्विघ्न यात्राकर पाएगा? इसी प्रकार, जिस साधक को अपने साधना-आदर्श का बोध नहो, जो साधना के सम्यक् – पथ से अनभिज्ञ हो और जिसके साथ कोई योग्य पथ-प्रदर्शक न हो, वह कैसे साधना कर पाएगा? जैन-विचारकों ने इसी तथ्य को सामने रखकर गृहस्थ-साधक के द्वारा सम्यक् आचरण की दिशा में आगे बढ़ने के लिए पूर्व में ही जीवन के आदर्श के रूप में देव, साधना-पथ के रूप में धर्म और मार्गदर्शक के रूप में गुरु का चयन आवश्यक माना। देव, गुरु और धर्म का स्वरूप
__1. देव-जैन आचार-दर्शन में 'देव' का तात्पर्य अर्हत या वीतराग-अवस्था को प्राप्त पुरुष है। ‘अर्हत्' शब्द आध्यात्मिक-पूर्णता का प्रतीक है। जो व्यक्ति ज्ञान, दर्शन आदिआत्मिक-शक्तियों का पूर्ण प्रकटन कर लेता है, वह अर्हत् कहलाता है। वह वीतराग इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वह राग और द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठ चुका है। जैनसाधना में वीतराग या अर्हत् का आदर्श एक व्यावहारिक-आदर्श है, क्योंकि अर्हत्अवस्था की प्राप्ति के पूर्व वह भी एक सामान्य व्यक्ति होता है, जो स्वयं के प्रयत्न, पुरुषार्थ
और साधना से उस योग्यता को प्राप्त करता है। वह यही प्रेरणा देता है कि जिसे तुम आदर्श मानते हो, वह तुममें ही प्रसुप्त है, प्रयत्न करो, तुम स्वयं ही आदर्श बन जाओगे। अर्हत् का आदर्श न तो वैयक्तिकता का प्रतीक है, न किसी ईश्वरवाद का ही है, वरन् वह तो आध्यात्मिक-पूर्णता है, जिसमें साम्प्रदायिक-अभिनिवेश भी पूर्णतया लुप्त है। आचार्य
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