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गृहस्थ-धर्म
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गृहस्थ-धर्म
जैन- दृष्टि से साधनामय जीवन का प्रारम्भ सम्यग्दर्शन से होता है और पूर्णता पूर्ण चारित्र्य की शैलेषी - अवस्था में होती है । साधनात्मक जीवन के दो पक्ष सम्यग्दर्शन और सम्यक् - ज्ञान की दृष्टि से गृहस्थ एवं श्रमण-साधक में कोई विशेष अन्तर नहीं है। जागतिकउपादानों की नश्वरता का और आत्मत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान, स्वस्वरूप और परस्वरूप का यथार्थ - बोध एवं साधनात्मक - जीवन के आदर्श देव, साधनात्मक - जीवन के पथप्रदर्शक गुरु और साधना-मार्ग-धर्म पर निश्चल श्रद्धा, यह समस्त बातें तो गृहस्थ और श्रमण- दोनों साधकों के लिए अनिवार्य हैं। यदि गृहस्थ और श्रमण में साधनात्मक जीवन सम्बन्धी कोई अन्तर है, तो वह चारित्र के परिपालन का है । सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान की साधना तो दोनों को समान रूप में ही करनी होती है, यद्यपि वे अपनी वैयक्तिक- क्षमता के आधार पर सम्यक् चारित्र्य के परिपालन में भिन्नता रख सकते हैं।
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जैन - साधना में धर्म के दो रूप
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जैन - साधना में धर्म के दो रूप माने गए हैं। एक, श्रुतधर्म (तत्त्वज्ञान) और दूसरा, चारित्रधर्म (नैतिक-आचार) । ' श्रुतधर्म का अर्थ है - जीवादि नव तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान और उनमें श्रद्धा और चारित्र धर्म का अर्थ है - संयम और तप । गृहस्थ और श्रमण-साधक के जीवन में अन्तर का आधार है - चारित्रधर्म, श्रुतधर्म की साधना, तो दोनों समान रूप से करते हैं। गृहस्थ-उपासक को श्रुतधर्म के रूप में जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - इन नौ पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। स्वाध्याय, ज्ञानार्जन एवं तत्त्व-चर्चा इसके प्रमुख अंग हैं। मूल आगमों में 'जीवाजीव और ज्ञाता', यह श्रावक का विशेषण है। जयंती जैसी श्राविका भगवान् महावीर से तत्त्वचर्चा करती थी । इसका अर्थ है कि जैन - परम्परा में तत्त्वज्ञान को प्राप्त करना श्रावक का कर्त्तव्य था । जीवादि तत्त्वों के स्वरूप को जानकर उन पर श्रद्धा रखना, यह गृहस्थ - उपासक की श्रुत-धर्म की साधना है। इसका विस्तृत विवेचन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के सन्दर्भ में हुआ है । स्थानांगसूत्र में दो प्रकार का चारित्र-धर्म वर्णित है। एक, अनगार-धर्म और दूसरा, सागर-धर्म | जैन और बौद्ध परम्पराओं में अनगार- -धर्म को श्रमण-धर्म एवं मुनिधर्म और सागारधर्म को गृहस्थधर्म या उपासकधर्म के नामों से भी अभिहित किया जाता है । 'आगार' श गृह या आवास के अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसका लाक्षणिक अर्थ है - पारिवारिकजीवन, अतः जिस धर्म का परिपालन पारिवारिक जीवन में रहकर किया जा सके, उसे
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