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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
प्रादुर्भाव हो जाता है। वैचारिक आग्रह न केवल वैयक्तिक नैतिक - विकास को कुण्ठित करता है, वरन् सामाजिक - जीवन में विग्रह, विषाद और वैमनस्य के बीज बो देता है । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत की निन्दा करने
अपना पाण्डित्य दिखाते हैं और लोक को सत्य से भटकाते हैं, वे एकान्तवादी स्वयं संसारचक्र में भटकते रहते हैं। 67 वैचारिक आग्रह मतवाद या पक्ष को जन्म देता है और उससे राग-द्वेष की वृद्धि होती है। आचारांगचूर्णि में कहा गया है कि प्रत्येक 'वाद' राग-द्वेष की वृद्धि करने वाला है" और जब तक राग-द्वेष हैं, तब तक मुक्ति भी सम्भव नहीं । इस प्रकार, जैनाचार्यों की दृष्टि में नैतिक- पूर्णता को प्राप्त करने के लिए वैचारिक आग्रह का परित्याग कर जीवनदृष्टि को अनाग्रहमय बनाना आवश्यक माना गया है।
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जैन - दर्शन के अनुसार, एकान्त और आग्रह मिथ्यात्व हैं, क्योंकि वे सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करते हैं । जैन तत्त्वज्ञान में प्रत्येक सत्ता अनन्त गुणों का समूह मानी गई है- अनन्तधर्मात्मकं वस्तुः । एकान्त उसमें से एक का ही ग्रहण करता है। इतना ही नहीं, वह एक के ग्रहण के साथ अन्य का निषेध भी करता है, उसकी भाषा में सत्य 'इतना' ही है, मात्र यही सत्य है । इस प्रकार, एक ओर, वह अनन्त सत्य के अनेकानेक पक्षों का अपलाप करता है, दूसरी ओर, वह मनुष्य के ज्ञान को कुण्ठित एवं सीमित करता है । आग्रह की उपस्थिति में अनन्त सत्य को जानने की जिज्ञासा ही नहीं होती, तो फिर सत्य या परमार्थ का साक्षात्कार तो बहुत दूर की बात है। यदि कुएँ का मेंढक कुएँ को ही समुद्र समझने लग
तो न तो कोई उसे उसके मिथ्याज्ञान से उबार सकता है और न उसे अथाह जलराशि का दर्शन करा सकता है। यही स्थिति एकान्त या आग्रह - बुद्धि की है, जिसमें न तो तत्त्व का यथार्थज्ञान होता है और न तत्त्व - साक्षात्कार ही होता है ।
जैन-विचारधारा के अनुसार, मिथ्याज्ञान किसी असत् या अनस्तित्ववान् तत्त्व का ज्ञान नहीं है, क्योंकि जो असत् है, मिथ्या है, उसका ज्ञान कैसे होगा ? जैन दर्शन के अनुसार, सारा ज्ञान सत्य है, शर्त यही है कि उसमें एकान्तवादिता या आग्रह न हो । एकान्त सत्य के अनन्त पहलुओं को आवृत्त कर अंश को ही पूर्ण के रूप में प्रकट करता है और इस प्रकार अंश को पूर्ण बताकर व्यक्ति के ज्ञान को मिथ्या बना देता है, साथ ही अनाग्रह अपने में निहित छद्म राग से सत्य को रंगीन कर देता है। इस प्रकार, एकान्त या आग्रह तत्त्वसाक्षात्कार या आत्म-साक्षात्कार में बाधक है। जैन दर्शन के अनुसार, तत्त्व परमार्थ या आत्मा पक्षातिक्रान्त है, अतः पक्ष या आग्रह के माध्यम से उसे नहीं पाया जा सकता। वह तो परमसत्य है, आग्रहबुद्धि उसे नहीं देख सकती। विचार या दृष्टि जब तक पक्ष, मत या वादों से अनावरित नहीं होती, सत्य भी उसके लिए अनावृत नहीं होता। जब तक आँखों पर राग
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