________________
भारतीय-दर्शन में सामाजिक-चेतना
187
व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जो कि अपने व्यक्तित्व को समष्टि में, समाज में विलीन कर दे। आचार्य शान्तिदेव लिखते हैं
सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थिचमे मनः।
त्यक्तव्यं चेन्मया सर्व वरं सत्त्वेषु दीयताम्॥2 इस प्रकार, यह धारणा कि मोक्ष का प्रत्यय सामाजिकता का विरोधी है, गलत है। मोक्ष वस्तुतः दुखों से मुक्ति है और मनुष्य-जीवन के अधिकांशदुःख, मानवीय-संवर्गों के कारण ही हैं, अतः मुक्ति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा आदि के संवर्गों से मुक्ति पाने में है और इस रूप में वह वैयक्तिक और सामाजिक-दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है। दुःख, अहंकार एवं मानसिकक्लेशों से मुक्ति-रूप में मोक्ष-उपादेयता और सार्थकता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है।
अन्त में, हम कह सकते हैं कि भारतीय जीवन-दर्शन की दृष्टि पूर्णतया सामाजिक और लोकमंगल के लिए प्रयत्नशील बने रहने की है। उसकी एकमात्र मंगल-कामना है
सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु । सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् ।
सन्दर्भ ग्रन्थ1. ऋग्वेद 10/191/2 2. वही, 10/192/3-4 3. तैत्तिरीय आरण्यक 8/2 4. ईश6 5. ईश 1 6. गीता 6/32 7. गीता 12/4 8. वही, 18/2 9. वही, 6/1 10. वही, 3/25 11. श्रीमद्भागवत 7/14/8 12. प्रश्नव्याकरण 1/1/21-22 13. सामायिक-पाठ (अमितगति)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org