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भारतीय-दर्शन में सामाजिक चेतना
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वस्तुतः, समस्त एषणाओं का त्याग स्वार्थ का त्याग है, वासनामय जीवन का त्याग है, संन्यास का यह संकल्प उसे समाज-विमुख नहीं बनाता है, अपितु समाज कल्याण की उच्चतर भूमिका पर अधिष्ठित करता है, क्योंकि सच्चा लोकहित निःस्वार्थता एवं विराग की भूमि पर स्थित होकर ही किया जा सकता है।
भारतीय-चिन्तन संन्यास को समाज-निरपेक्ष नहीं मानता । भगवान् बुद्ध का यह आदेश 'चरत्थ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय देव मनुस्सान' (विनयपिटक–सहवाग्ग) इस बात का प्रमाण है कि संन्यास लोकमंगल के लिए होता है। सच्चा संन्यासी वह व्यक्ति है, जो समाज से अल्पतम लेकर उसे अधिकतम देता है। वस्तुतः, वह कुटुम्ब, परिवार आदि का त्याग इसलिए करता है कि समष्टि का होकर रहे, क्योंकि जो किसी का है, वह सबका नहीं हो सकता, जो सबका है, वह किसी का नहीं है। संन्यासी निःस्वार्थ और निष्काम रूप से लोक-मंगल का साधक होता है। संन्यास शब्द सम्पूर्वक न्यास है, न्यास शब्द का एक अर्थ देखरेख करना भी है। संन्यासी वह व्यक्ति है, जो सम्यक् रूप से एक न्यासी (ट्रस्टी) की भूमिका अदा करता है औरन्यासी वह है, जोममत्व-भाव और स्वामित्व का त्याग करके किसी ट्रस्ट (सम्पदा) का रक्षण एवं विकास करता है। संन्यासी सच्चे अर्थ में एक ट्रस्टी है। ट्रस्टी यदि ट्रस्ट का उपयोग अपने हित में करता है, अपने को उसका स्वामी समझता है, तो वह सम्यक् ट्रस्टी नहीं हो सकता है। इसी प्रकार, यदि वह ट्रस्ट के रक्षण एवं विकास का प्रयत्न न करे, तो भी सच्चे अर्थ में ट्रस्टी नहीं है। इसी प्रकार, यदि संन्यासी नहीं है और यदि लोक की उपेक्षा करता है, लोकमंगल के लिए प्रयास नहीं करता है, तो वह भी संन्यासी नहीं है। उसके जीवन का मिशन तो सर्वभूत-हिते रतः' का है।
संन्यास में राग से ऊपर उठना आवश्यक है, किंतु इसका तात्पर्य समाज की उपेक्षा नहीं है। संन्यास की भूमिका में स्वत्व एवं ममत्व के लिए निश्चय ही कोई स्थान नहीं है, फिर भी वह पलायन नहीं, अपितु समर्पण है। ममत्व का परित्याग कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं है, अपितु कर्तव्य का सही बोध है। संन्यासी उस भूमिका पर खड़ा होता है, जहाँ व्यक्ति अपने में समष्टिको और समष्टिमें अपने को देखता है। उसकी चेतना अपने और पराएकेभेदसे ऊपर ऊ जाती है। यह अपने और पराए के विचार से ऊपर हो जानासमाज-विमुखता नहीं है, अपितु यह तो उसके हृदय की व्यापकता है, महानता है, इसलिए भारतीय-चिन्तकों ने कहा है
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतमास् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
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