SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय-दर्शन में सामाजिक-चेतना 181 दूसरे जीवों का उपकारक कहा गया है परस्परोपग्रहो जीवानाम्'15 | चेतन सत्ता यदि किसी का उपकार या हित कर सकती है, तो चेतन सत्ता का ही कर सकती है। इस प्रकार, पारस्परिक हित-साधन, यह जीव का स्वभाव है और यह पारस्परिक हित-साधना की स्वाभाविक-वृत्ति ही मनुष्य की सामाजिकता का आधार है । इस स्वाभाविक-वृत्ति के विकास के दो आधार हैं - एक, रागात्मक और दूसरा, विवेक । रागात्मकता हमें कहीं से जोड़ती है, तो कहीं से तोड़ती भी है। इस प्रकार, रागात्मकता के आधार पर जब हम किसी को अपना मानते हैं, तो उसके विरोधी के प्रति 'पर' का भाव भी आ जाता है। राग द्वेष के साथ ही जीता है। वे ऐसे जुड़वां शिशु हैं, जो एकसाथ उत्पन्न होते हैं, एक साथ जीते हैं और एक साथ मरते भी हैं। राग जोड़ता है, तो द्वेष तोड़ता है। राग के आधार पर जो भी समाज खड़ा होगा, तो उसमें अनिवार्य रूप से वर्गभेद और वर्णभेद रहेगा ही। सच्ची सामाजिकचेतनाका आधारराग नहीं, विवेक होगा। विवेक के आधार पर दायित्व-बोध एवं कर्त्तव्यबोध की चेतना जाग्रत होगी। राग की भाषा अधिकार की भाषा है, जबकि विवेक की भाषा कर्तव्य की भाषा है। जहाँ केवल अधिकारों की बात होती है, वहाँ केवल विकृत सामाजिकता होती है। स्वस्थ सामाजिकता अधिकार का नहीं, कर्तव्य का बोध कराती है और ऐसी सामाजिकता का आधार 'विवेक' होता है, कर्तव्य-बोध होता है। जैन धर्म ऐसी ही सामाजिक-चेतना को निर्मित करना चाहता है। जब विवेक हमारी सामाजिकचेतना का आधार बनता है, तो मेरे और तेरे की, अपने और पराए की चेतना समाप्त हो जाती है, सभी आत्मवत् होते हैं। जैन-धर्म ने अहिंसा को जो अपने धर्म का आधारमाना है, उसका आधार यही आत्मवत्-दृष्टि है। सामाजिक-जीवन के बाधक तत्त्व-अहंकार और कषाय सामाजिक-सम्बन्ध में व्यक्ति का अहंकार भी बहुत कम महत्वपूर्ण कार्य करता है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व हैं, इनके कारण भी सामाजिक जीवन में विषमता उत्पन्न होती है। शासक और शासित, अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि की श्रेष्ठता-निम्नता के मूल में यही कारण है। वर्तमान में बड़े राष्ट्रों में जो अपने प्रभावकक्षेत्र बनाने की प्रवृत्ति है, उसके मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहं की पुष्टि का प्रयत्न है। स्वतन्त्रता के अपहार का प्रश्न इसी स्थिति में होता है। जब व्यक्ति के मन में आधिपत्य की वृत्ति या शासन की भावना उबुद्ध होती है, तो वह दूसरे के अधिकारों का हनन करता है, अपहरण करता है। जैन-दर्शन अहंकार (मान) प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक-परतन्त्रता को समाप्त करता है। दूसरी ओर, जैन-दर्शन का अहिंसा-सिद्धान्त भी सभी प्राणियों के समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy