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परिवर्तन हुए और परिणामस्वरूप विभिन्न मान्यताएँ बर्नी, जो एक-दूसरे के विरोध में खड़ी रहीं, अतः प्रस्तुत गवेषणा में उन सबको सम्मिलित करना न तो उचित था, न सम्भव ही, इसलिए हिन्दू आचार- परम्परा के प्रतिनिधि के रूप में गीता का चयन करना ही उचित प्रतीत हुआ, क्योंकि हिन्दू परम्परा के आधारभूत ग्रन्थों में उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र एवं गीता की प्रस्थानत्रयी ही प्रमाणभूत है। चाहे हिन्दू परम्परा में कितने ही पारस्परिक विरोध हों, चाहे हिन्दू - आचार की परिधियां अनेक हों, फिर भी केन्द्र सबका एक ही है। सभी अपने पक्ष का समर्थन प्रस्थानत्रयी के आधार पर करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार, गीता आज भी सभी की श्रद्धेय है और हिन्दू आचार- दर्शन का प्रतिनिधित्व करने में समर्थ है। डॉ. राधाकृष्णन् लिखते हैं, 'यह (गीता) हिन्दू का प्रतिनिधत्व करती है ।' अतः, तुलनात्मक दृष्टि से गीता IT अधिक उपयोग किया गया है और फिर भी गीता के संक्षिप्त ग्रन्थ होने के कारण तुलनात्मक-साम्यता को स्पष्ट करने के लिए यथावसर उपनिषदों, स्मृतिग्रन्थों तथा महाभारत का भी उपयोग किया है।
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बौद्धाचार - परम्परा ने जिस मध्यम मार्ग का उपदेश दिया था, वह उचित समाधान तो था, लेकिन व्यावहारिक जीवन में निवृत्ति और प्रवृत्ति के मध्य उस समतौल को बनाए रखना सहज नहीं था। परिणाम यह हुआ कि बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद वह समतौल विचलित हो गया। एक पक्ष का झुकाव निवृत्ति की ओर अधिक हुआ और वह हीनयान (छोटा वाहन) कहलाया है, क्योंकि निवृत्यात्मक-साधना में अधिक लोगों को लगा पाना संभव नहीं था। दूसरी ओर, जो पक्ष प्रवृत्ति की ओर झुका एवं जिसने जन-कल्याण के मार्ग को अपनाया, वह महायान (बड़ा वाहन) कहलाया। एक बार इस समतौल का विचलन होने के बाद बौद्ध परम्परा अपनी मध्यस्थिति को पुनः नहीं लौट पायी, वरन् विभिन्न अवान्तर-सम्प्रदायों (निकायों) में विभाजित होती चली गई। प्रस्तुत तुलनात्मक - गवेषणा बौद्ध दर्शनको विस्तृत समग्र रूप से समेट पाना असम्भव है। दूसरे, उन निकायों की पारस्परिक - दूरी इतनी अधिक है कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से वे अधिक उपयोगी नहीं रह जातीं; अतः प्रस्तुत गवेषणा में बौद्ध दर्शन से तात्पर्य प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन से ही है। प्राचीन बौद्ध पालि साहित्य में वर्णित आचार-परम्पराओं से आज का बौद्धद- समाज चाहे कितना ही दूर क्यों नहीं हो, फिर भी आचार - दर्शन सम्बन्धी समस्याओं के हल खोजने
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आज भी उसकी दृष्टि उस ओर जाती अवश्य है। दूसरे, वह साहित्य जैनाचार - दर्शन सम्बन्धी प्राचीन आगम-साहित्य से कालिक-साम्यता भी रखता है, अतः प्रस्तुत गवेषणा
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से ही बौद्ध परम्परा के अध्ययन का मुख्य आधार बनाया है, यद्यपि विशुद्धिमग्ग जैसे स्थविरवादी और बोधिचर्यावतार तथा लंकावतार जैसे महायानी ग्रन्थों की तुलना की दृष्टि से यथासम्भव उपयोग किया गया है।
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