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________________ सम्यक्चारित्र (शील) 109 सम्यकचारित्र (शील) सम्यग्दर्शन से सम्यक्चारित्र की ओर आध्यात्मिक-जीवन की पूर्णता के लिए श्रद्धा और ज्ञान से काम नहीं चलता। उसके लिए आचरण जरूरी है। यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का सम्यक्चारित्र के पूर्व होना आवश्यक है, फिर भी वे बिना सम्यक्चारित्र के पूर्णता को प्राप्त नहीं होते। दर्शन अपने अन्तिम अर्थ तत्त्व-साक्षात्कार के रूप में तथा ज्ञान अपने आध्यात्मिक-स्तर पर चारित्र से भिन्न नहीं रह पाता। यदि हम सम्यग्दर्शन को श्रद्धा के अर्थ में और सम्यग्ज्ञान को बौद्धिक-ज्ञान के अर्थ में ग्रहण करें, तो सम्यक्-चारित्र का स्थान स्पष्ट हो जाता है। वस्तुतः, इस रूप में सम्यक्चारित्र आध्यात्मिक-पूर्णता की दिशा में उठाया गया अन्तिम चरण है। आध्यात्मिक-पूर्णता की दिशा में बढ़ने के लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि जब तक हम अपने में स्थित उस आध्यात्मिक-पूर्णता या परमात्मा का अनुभव न करलें, तब तक हमें उन लोगों के प्रति, जिन्होंने उस आध्यात्मिक-पूर्णता या परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया है, आस्थावान् रहना चाहिए एवं उनके कथनों पर विश्वास करना चाहिए, लेकिन देव, गुरु, शास्त्र और धर्म पर श्रद्धा या आस्था का यह अर्थ कदापि नहीं है कि बुद्धि के दरवाजे बन्द कर लिए जाए। मानव में चिन्तन-शक्ति है, यदि उसकी इस चिन्तन-शक्ति को विकास का यथोचित अवसर नहीं दिया गया है, तो न केवल उसका विकास ही अपूर्ण होगा, वरन् मानवीय-आत्मा उसआस्था के प्रति विद्रोहभी कर उठेगी। जीवन के तार्किकपक्ष को सन्तुष्ट किया जाना चाहिए, इसीलिए श्रद्धा के साथ ज्ञान का समन्वय किया गया है, अन्यथा श्रद्धा अन्धी होगी। श्रद्धा जब तक ज्ञान एवं स्वानुभूति से समन्वित नहीं होती, वह परिपुष्ट नहीं होती। ऐसी अपूर्ण, अस्थायी और बाह्य-श्रद्धा साधक-जीवन का अंग नहीं बन पाती है। महाभारत में कहा गया है कि जिस व्यक्ति ने स्वयं के चिन्तन द्वारा ज्ञान उपलब्ध नहीं किया, वरन् केवल बहुत-सी बातों को सुनाभर है, वह शास्त्र को सम्यक् रूप से नहीं जानता ; जैसे चमचा दाल के स्वाद को नहीं जानता।। इसलिए, जैन-विचारणा में कहा गया है कि प्रज्ञासे धर्म की समीक्षा करना चाहिए; तर्क से तत्त्व का विश्लेषण करना चाहिए, लेकिन तार्किक या बौद्धिक-ज्ञान भी अन्तिम नहीं है। तार्किक-ज्ञान जब तक अनुभूति से प्रमाणित नहीं होता, वह पूर्णता तक नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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