SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -8 पर सत्य हो जाते हैं। ' एकांगी विचार-कण जब समन्वय के सूत्र में ग्रथित हो जाते हैं, तो सत्य का प्रकटन कर देते हैं। अपने-अपने पक्ष में ही प्रतिबद्ध सभी दृष्टिकोण असम्यक् (असत्य) होते हैं, परन्तु परस्पर सापेक्ष होकर समन्वित रूप में वे ही सम्यक् ( सत्य) बन जाते हैं। वर्तमान युग में अध्ययन की जिस दिशाकी आवश्यकता है, उसे इस समन्वयात्मकभूमिका पर आरूढ़ होना चाहिए और यह कार्य उस तुलनात्मक अध्ययन-प्रणाली के द्वारा हीसम्भव हो सकता है, जो निष्पक्ष एवं समन्वयात्मक दृष्टि को आगे रखकर इस क्षेत्र में प्रविष्ट होती है। प्रस्तुत गवेषणा की अध्ययन-दृष्टि प्रस्तुत गवेषणा में तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से हमने जिस दृष्टिकोण को अपनाया है, उसे अधिक स्पष्ट कर देना आवश्यक है। तुलनात्मक अध्ययन का एक रूप वह होता है, जिसमें प्रतिपक्ष की असंगतियों को स्पष्ट किया जाता है, पक्ष से उसकी भिन्नता प्रकट की जाती है और अन्त में पक्ष की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया जाता है। तुलनात्मक अध्ययन का दूसरा स्वरूप वह है, जिसमें तुलनीय-परम्पराओं में निहित साम्य को प्रकट किया जाता है, पारस्परिक-विरोध में भी निहित समन्वय के सूत्र खोजने का प्रयास किया जाता है। प्रस्तुत गवेषणा में हमने मुख्यतया इस दूसरे रूप को ही अपनाया है। हमारे इस समन्वयात्मक दृष्टिकोण को अपनाने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि तुलनीय आचार-दर्शनों में भिन्नता या विरोध के सूत्र नहीं हैं। वास्तविकता यह है कि परस्पर विरोध खोजने और प्रतिपक्ष की असंगतियों का निर्देशन करने के प्रयास तो बहुत हुए हैं। स्वपक्ष के मण्डन और परपक्ष के खण्डन में हमारे पूर्वज विद्वानों ने बहुत ही शक्ति एवं श्रम का व्यय किया है, पारस्परिक-विरोध और असंगतियों को स्पष्ट करने के लिए हमारे पास विपुल साहित्य है, चाहे वह संस्कृतभाषा में ही क्यों न हो, लेकिन समन्वय की भूमिका को तैयार करने के लिए कुछ भी नहीं किया गया है। संस्कृत भाषा में भी हरिभद्र के 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' जैसे एकाध अपवाद को छोड़कर ऐसे साहित्य का अभाव ही है। अतः, यह आवश्यक है कि समन्वयात्मक-दृष्टिकोण से अध्ययन करने की परम्परा को अपनाकर उनमें परिलक्षित होने वाली एकताको प्रकट किया जाए, ताकि मानव-जाति के टूटे हुए सूत्रों को पुनः जोड़ा जा सके और विभिन्न परम्पराओं को एक-दूसरे के निकट लाया जा सके। सम्भवतः, विद्वत्-वर्ग का यह आक्षेप हो सकता है कि परस्पर भिन्न दार्शनिक भित्तियों पर खड़े इन आचार-दर्शनों में निहित विरोध की उपेक्षा कर उनके साम्य पर बल देना एक प्रकार का पूर्वाग्रह ही कहा जाएगा, जबकि शोध-विद्यार्थी का कार्य तो यह है कि बिना किसी पूर्वाग्रहके तुलनात्मक अध्ययन में, विरोध या साम्य जोभी उसे मिले, प्रकट कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy