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________________ निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता ८९१ 3 (Sa Jain Education International 97 निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता 1. पाश्चात्य - दृष्टिकोण पाश्चात्य - आचारदर्शन में यह प्रश्न सदैव विवादास्पद रहा है कि नैतिकता सापेक्ष है या निरपेक्ष। नैतिकता को निरपेक्ष मानने वाले विचारकों में प्रमुख हैं जर्मन दार्शनिक कांट। कांट का कथन है कि केवल उस सिद्धान्त के अनुसार आचरण करो, जिसे तुम उसी समय एक सार्वभौम नियम बनाने का भी संकल्प कर सको।' नैतिक नियम निरपेक्ष आदेश हैं, जो देश, काल अथवा व्यक्ति के आधार पर परिवर्तित नहीं होते । यदि सत्य बोलना नैतिकता है, तो फिर किसी भी स्थिति में असत्य बोलना नैतिक नहीं हो सकता, प्रत्येक परिस्थिति में सत्य ही बोलना चाहिए। कांट की मान्यता को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि जो आचरण नैतिक है, वह सदैव नैतिक रहेगा और जो अनैतिक है, वह सदैव अनैतिक रहेगा। देश-कालगत अथवा व्यक्तिगत परिस्थितियों से नैतिकता प्रभावित नहीं होती । जो विचारणा यह स्वीकार करती है कि नैतिकता निरपवाद एवं देश, काल, परिवेश और व्यक्तिगत तथ्यों से निरपेक्ष है, उसे निरपेक्ष नैतिकता की विचारणा कहा जाता है। इसके विपरीत, जो विचारणाएँ नैतिक आचरण को स-अपवाद एवं देश, काल तथा व्यक्तिगत परिस्थितियों के आधार पर परिवर्तनशील मानती हैं, वे नैतिकता की सापेक्षवादी विचारणाएँ हैं। नैतिक सापेक्षवादी विचारणाएँ नैतिक नियमों को बाह्यपरिस्थिति - सापेक्ष मानती हैं। सापेक्षवादी विचारणा यह स्वीकार करती है कि जो कर्म एक अवस्था में नैतिक हो सकता है, वही कर्म दूसरी अवस्था में अनैतिक हो सकता है। सापेक्षवादी विचारणा के अनुसार परिस्थितिनिरपेक्ष कर्म नैतिक मूल्यांकन का विषय नहीं है। कर्म का नैतिक-मूल्यांकन उस परिस्थिति के आधार पर किया जाता है, जिसमें वह सम्पन्न होता है । इसका अर्थ यह भी है कि परिस्थिति के परिवर्तित हो जाने पर कर्म का नैतिक मूल्य भी बदल सकता है। दो भिन्न परिस्थितियों में सम्पन्न समान कर्म या आचरण भी नैतिक मूल्य की दृष्टि से भिन्न हो जाते हैं, 2 जैसे सत्यव्रत का एकांगी पालन करने के नाम पर शत्रु को राज्य की गुप्त संरक्षण-व्यवस्था की जानकारी देना अनैतिक है। हाज़, मिल, सिजविक प्रभृति सुखवादी विचारक और विकासवादी विचारक यही दृष्टिकोण अपनाते हैं। इनका नैतिक कर्मों में अपवाद को लेकर कांट से विरोध है । ये विचारक नैतिक जगत् में अपवाद को स्वीकार करते हैं। हाज लिखते हैं, 'किसी अकाल के समय जब अनाज क्रय करने पर भी न मिले, न दान में ही प्राप्त हो, तब क्षुधा तृप्ति के लिए कोई चौर्य-कर्म का आचरण करता है, तो वह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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