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तो शायद ही कभी उठी हो। इसी प्रकार, गीता की नैतिक मान्यताओं का जेन और बौद्धपरम्परा से कितना साम्य है, यह विषय भी अछूता ही रहा है।
जहाँ तक जैन आचार-दर्शन के स्वतन्त्र एवं व्यापक अध्ययन का प्रश्न है, कुछ प्रारम्भिक प्रयासों को छोड़कर यह क्षेत्र भी अछूता ही रहा है। जैनदर्शन की तत्त्वमीमांसा
और ज्ञानमीमांसा पर आदरणीय सातकाडी मुकर्जी, डॉ. टाटिया, डॉ. पदमराजे, डॉ. हरिसत्य भट्टाचार्य के ग्रंथ उपलब्ध हैं। जैन मनोविज्ञान पर भी डॉ. मोहनलाल मेहता और डॉ. कलघाटगी के ग्रंथ उपलब्ध हैं, जबकि जैन-आचारदर्शन पर स्वतन्त्र रूप से किसी भी ग्रन्थ का अभाव ही था, यद्यपि डॉ. शान्ताराम भालचन्द्र देव का जैन मुनियों के आचार पर एक विशालकाय शोधप्रबन्ध अवश्य उपलब्ध था, लेकिन उसमें भी आचारदर्शन की सैद्धान्तिक समीक्षाओं का अभाव ही है। संयोग से, जबकि यह ग्रन्थ अपनी पूर्णता की ओर था, तभी डॉ. मेहता का जैन आचार' नामक ग्रन्थ भी प्रकाश में आया, यद्यपि इसमें भी आचार-दर्शन की सैद्धान्तिक समस्याओं पर विशेष विचार नहीं हुआ है। ग्रन्थकार ने अपने को आचार के सामान्य नियमों की विवेचना तक ही सीमित रखा है। यद्यपि यह प्रसन्नता का विषय है कि इस ग्रन्थ को अन्तिम रूप देने के पूर्व ही डॉ. सोगानी का ‘एथिकल डाक्ट्रिन इन जैनिज्म (1969)' एवं डॉ. भार्गव का 'जैन एथिक्स' (1968) नामक ग्रन्थ प्रकाशित हो गए हैं। यद्यपि उनमें भी नैतिकता की सैद्धान्तिक समस्याओं पर विस्तृत रूप से कोई विवेचन उपलब्ध नहीं होता है, साथ ही तुलनात्मक दृष्टि से भी कुछ विशेष विचार उपलब्ध नहीं होते हैं।
पाश्चात्य-विचारणा में नैतिक प्रमापक के प्रश्न को लेकर जिस ढंग से विभिन्न नैतिक धारणाओं का विकास हुआ है, उसी ढंग पर हमारे यहाँ की नैतिक धारणाओं का अध्ययन नहीं हुआ है, मात्र श्री सुशीलकुमार मैत्रा ने अपने ग्रन्थ के परिशिष्ट में इस ढंग से एक प्रयास अवश्य किया है। इस प्रकार, तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक परिप्रेक्ष्य में भारतीय आचार-दर्शनों के अध्ययन की आवश्यकता अभी भी बनी हुई है। प्रस्तुत ग्रन्थ उसी दिशा में एक प्रयास है। समन्वयात्मक परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता
भारतीय चिन्तकों ने जीवन के विभिन्न पहलुओं को काफी सूक्ष्म दृष्टि से परखा है। पाश्चात्य-परम्परा के विभिन्न नैतिक सिद्धान्त, जो आज अपनी मौलिकता का दावा करते हैं, भारतीय नैतिक चिन्तन में बिखरे हुए पड़े हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन आचार-दर्शन के अध्ययन के साथ-साथ उसकी निकटवर्ती दो आचार-प्रणालियों से तुलना करने का भी यथासम्भव प्रयास किया गया है।
हमारे समन्वयात्मक दृष्टि से किए गए इस तुलनात्मक अध्ययन का प्रमुख दृष्टिकोण,
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