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________________ मनोवृत्तियाँ (कथाय एवं लेश्याएं) 543 पूर्व-सम्बन्ध इसका कारण रहा हो। जहाँ तक भगवान् बुद्ध की तत्सम्बन्धी मान्यता का प्रश्न है, वे पूर्ण कश्यप अथवा गोशालक की मान्यता से अपने को सहमत नहीं करते हैं। वे व्यक्ति के नैतिक-स्तर के आधार पर वर्गीकरण तो प्रस्तुत करते हैं, लेकिन अपने वर्गीकरण को जैन-विचारणा के समान मात्र वस्तुनिष्ठ ही रखना चाहते हैं। वे भी यह नहीं बताते कि अमुक वर्ग या व्यक्ति इस वर्ग का है, वरन् यही कहते हैं कि जिसकी मनोभूमिका एवं आचरण जिस वर्ग के अनुसार होगा, वह उस वर्ग में आ जाएगा। पूर्ण कश्यप के दृष्टिकोण की समालोचना करते हुए भगवान् बुद्ध आनन्द से कहते हैं कि मैं अभिजातियों को तो मानता हूँ, लेकिन मेरा मन्तव्य दूसरों से पृथक् है।” मनोदशा और आचरणपरकवर्गीकरण बौद्ध-विचारणा का प्रमुख मंतव्य था। बौद्ध-विचारणा में प्रथमत: प्रशस्त और अप्रशस्त-मनोभाव तथा कर्म के आधार पर मानव-जाति को कृष्ण और शुक्लवर्ग में रखा गया है। जो क्रूर कर्मी हैं, वे कृष्णअभिजाति के हैं और जो शुभ कर्मी हैं, वे शुक्ल-अभिजाति के हैं। पुन:, कृष्ण प्रकार वाले और शुक्ल प्रकार वाले मनुष्यों को गुण-कर्म के आधार पर तीन-तीन भागों में बाँटा गया। जैनागम उत्तराध्ययन में भी लेश्याओं को प्रशस्त और अप्रशस्त-इन दो भागों में बाँटकर प्रत्येक के तीन विभाग किए गए हैं। बौद्ध-विचारणा ने शुभाशुभ कर्म एवं मनोभाव के आधार पर छह वर्ग तो मान लिए, लेकिन इसके अतिरिक्त उन्होंने एक वर्ग उन लोगों का भी माना, जो शुभाशुभसे ऊपर उठ गए हैं और इसे अकृष्ण-शुक्ल कहा। वैसे, जैन-दर्शन में भी अर्हद को अलेशी कहा गया है। लेश्या-सिद्धान्त और गीता- गीता में भी प्राणियों के गुण-कर्म के अनुसार वर्गीकरण की धारणा मिलती है। गीता न केवल सामाजिक-दृष्टि से प्राणियों का गुणकर्म के अनुसार वर्गीकरण करती है, वरन् वह नैतिक-आचरण की दृष्टि से भी वर्गीकरण प्रस्तुत करती है। गीता के 16 वें अध्याय में प्राणियों की आसुरी एवं दैवी-ऐसी दो प्रकार की प्रकृति बतलाई गई है और इसी आधार पर प्राणियों के दो विभाग किए गए हैं। गीता का कथन है कि प्राणियों या मनुष्यों की प्रकृति दो ही प्रकार की होती है, या तो दैवी, या आसुरी। उसमें भी दैवीगुण मोक्ष के हेतु हैं और आसुरीगुण बन्धन के हेतु हैं। यद्यपि गीता में हमें द्विविध वर्गीकरण ही मिलता है, लेकिन इसका तात्पर्य यही है कि मूलत: दो ही प्रकार होते हैं, जिन्हें हम चाहे देवी और आसुरी-प्रकृति कहें, चाहे कृष्ण और शुक्ललेश्या कहें, या कृष्ण और शुक्ल-अभिजाति कहें। जैन-विचारणा के विवेचन में भी दो ही मूल प्रकार हैं। प्रथम तीन कृष्ण, नील और कापोत-लेश्या को अविशुद्ध, अप्रशस्त और संक्लिष्ट कहा गया है और अन्तिम तीन तेजो, पद्म औरशुक्ल-लेश्या को विशुद्ध, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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