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जैन-आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष
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मन का स्वरूप तथा नैतिक-जीवन में
उसकास्थान
समग्र संकल्प, इच्छाएँ, कामनाएँ एवं राग-द्वेष की वृत्तियाँ आदि अधिकांश नैतिकप्रत्यय मन:प्रसूत हैं, मन ही सद्-असद्का विवेक करता है। यही हमारे शुभाशुभ भावों का आधार है, अत: मन के स्वरूप पर भी विचार कर लेना आवश्यक है। मन का स्वरूप
मनके स्वरूप-विश्लेषण की प्रमुख समस्या यह है कि मन भौतिक-तत्त्व है, अथवा चेतन-तत्त्व है ? जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन इस विषय में तीन भिन्न-भिन्न विचार रखते हैं- 1. बौद्ध-दर्शन मन को चेतन-तत्त्व मानता है। 2. गीता सांख्य-दर्शन के अनुरूप मन को जड़ प्रकृति से ही उत्पन्न और त्रिगुणात्मक मानती है। 3. जैन-दर्शन मन को भौतिक और अभौतिक-दोनों मानता है। जैन-परम्परा से मिलता-जुलता दृष्टिकोण योग-वाशिष्ठ में मिलता है। यद्यपि योगवाशिष्ठ के निर्वाण-प्रकरण में मन को जड़ कहा गया है और उसकी गतियों को जड़ पाषाण-खण्ड के समान अन्य से नियोजित माना गया है, तथापि मन को जैन-विचारणा के समान जड़-चेतन उभयरूप भी माना गया है।
द्रव्यमन और भावमन- जैन-विचार में मन के भौतिक रूप को द्रव्य-मन और चेतनरूप को भावमन कहा गया है।' द्रव्य-मन मनोवर्गणा नामक परमाणुओं से बना हुआ है। यह मन का आंगिक एवं संरचनात्मक-पक्ष है। साधारणतया, इसमें शरीर के सभी ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक-अंग आ जाते हैं। मनोवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित उस भौतिक-रचना-तन्त्र में प्रवाहित होने वाली चैतन्यधारा भावमन है। दूसरे शब्दों में, इस रचना-तंत्र को आत्मा से मिली हुई ज्ञान, वेदना एवं संकल्प की चैतन्य-शक्ति ही भावमन है।
मन शरीर के किस भाग में स्थित है ?- एक प्रश्न यह भी उठता है कि द्रव्यमन और भावमन शरीर के किस भाग में स्थित हैं ? दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थ गोम्मटसार जीवकाण्ड में द्रव्यमन कास्थान हृदय माना गया है, जबकि श्वेताम्बर आगम-ग्रन्थों में ऐसा कोई निर्देश नहीं है कि मन शरीर के किस विशेष भाग में स्थित है। पं. सुखलालजी यह मानते हैं कि श्वेताम्बर-परम्परा को समग्र स्थूल-शरीर ही द्रव्यमन का स्थान इष्ट है। जहां तक भावमन के स्थान का प्रश्न है, उसका स्थान आत्मा ही है, क्योंकि आत्मप्रदेश सम्पूर्ण शरीर
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