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जैन-आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष
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स्मृतिवान् रहता है, विरक्त चित्त से वेदन करता है, उनमें अनासक्त रहता है। रूप को देखने
और जानने से उसका रागबन्धन घटता ही है, बढ़ता नहीं, क्योंकि वह स्मृतिवान् होकर विहरता है। बुद्ध की दृष्टि में भी सारा बन्धन इन्द्रिय-व्यापार में नहीं, वरन् मन की दशा पर निर्भर है।
गीता में इन्द्रिय-दमन- गीता में भी हम इसी प्रकार का निर्देश पाते हैं। उसमें कहा गया है कि इन्द्रियों के अर्थों में, अर्थात् सभी इन्द्रियों के विषयों में स्थित जो राग
और द्वेष हैं, उन दोनों के वश में नहीं होएं, क्योंकि वे दोनों ही कल्याण-मार्ग में विघ्न डालने वाले महान् शत्रु हैं। जो मूढ-बुद्धि पुरुष इन्द्रियों को उनके विषयों से बलात् रोककर इन्द्रियों के भोगों का मन से चिन्तन करता रहता है, उस पुरुष के राग-द्वेष निवृत्त नहीं होने के कारण वह मिथ्याचारी या दम्भी कहा जाता है।" इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले पुरुष के केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु राग-निवृत्ति नहीं होती। ऐसा व्यक्ति सच्चे अर्थों में निवृत्त नहीं कहा जाता। वास्तविकता यह है कि इन्द्रिय-व्यापारों का निरोध नहीं, वरन् उनमें निहित राग-द्वेष का निरोध करना होता है, क्योंकि बन्धन का वास्तविक कारण इन्द्रिय-व्यापार नहीं, वरन् राग-द्वेष की प्रवृत्तियाँ हैं। गीता कहती है कि राग, द्वेष से विमुक्त मनुष्य इन्द्रिय-व्यापार करता हुआ भी पवित्रता को ही प्राप्त होता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि गीता इन्द्रिय-निरोध के स्थान पर मनोवृत्तियों के निरोध पर ही जोर देती है।
जैन, बौद्ध और गीता के समालोच्य आचार-दर्शन इन्द्रिय-निरोध का वास्तविक अर्थ इन्द्रिय-व्यापार का निरोध नहीं, वरन् उनके पीछे रही राग-द्वेष की वृत्तियों का निरोध बताते हैं। नैतिक-दृष्टि से इन्द्रिय-व्यापारों के स्थान परमन की वृत्तियाँ ही अधिक महत्वपूर्ण हैं, अत: यह विचार करना आवश्यक है कि यह मन क्या है और उसका नैतिक-जीवन से क्या सम्बन्ध है? सन्दर्भ ग्रंथ1. मनोविज्ञान-उडवर्थ एण्ड माविस, पृ.2. 2. एथिकलस्टडीज, भूमिका, पृ. 16. 3. We may define conduct as volentary action.
- The Elements of Ethics, p.46.
4. 5. 6.
दशवैकालिक, 4/7. दशवैकालिकभूमिका, पृ. 12. दशवकालिक, 418
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