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________________ नैतिक-जीवन का साध्य (मोक्ष) 475 निर्वैयक्तिक ही माना गया है। इसे हम निर्गुण ईश्वर कह सकते हैं। 3. सम्भोगकाय-सर्वभूतहितरतधर्मकाय जब पुरुषविद् (वैयक्तिक) होकर लोककल्याण करने लगता है, तब उसे सम्भोगकाय कहते हैं। जो कारित्र (कर्म) धर्मकाय का है, वही इसका है, परधर्मकाय अरूपी है, यह रूपवान् है, धर्मकाय अपुरुषविद् है, यह पुरुषविद् है, धर्मकाय निराकार है, यह साकार है, धर्मकाय अव्यक्त है, यह व्यक्त है। इसकी तुलना गीता के वैयक्तिक-ईश्वर से की जा सकती है। 4. निर्माणकाय-जिन शाक्य मुनि बुद्ध का व्यक्त दर्शन हम करते हैं, उसका नाम निर्माणकाय है। निर्माणकायों के द्वारा ही बुद्ध जगत् का बहुविध साधन (कल्याण) करते हैं। निर्माणकाय की तुलना गीता के ईश्वर के अवतार से हो सकती है। - इस प्रकार, हम देखते हैं कि यद्यपि हीनयान और महायान-सम्प्रदायों में साधना का आदर्श बुद्धत्व रहा है, तथापि दोनों ने अपने दृष्टिकोणों के आधार पर उसकी व्याख्या भिन्न रूप में की है। हीनयान ने उसके वीतराग और वीततृष्ण-स्वरूपको स्वीकार किया, जबकि महायान ने उसके स्वरूप में लोकमंगल की उद्भावना की। हीनयान का दृष्टिकोण जैनपरम्परा के निकट है, जबकि महायान का दृष्टिकोण कुछ अर्थों में गीता के निकट है। __ उपास्य के रूप में ईश्वर- भारतीय नैतिक-चिन्तन धर्म और नैतिकता एकदूसरे के अभिन्न रहे हैं। धार्मिक-जीवन में श्रद्धा के लिए किसी उपास्य की स्वीकृति आवश्यक है। जैन, बौद्ध और गाता की पराम्पराओं में उपास्य के रूप में ईश्वर का प्रत्यय स्वीकृत रहा है। जैन-परम्परा में उपास्य के रूप में अरिहंत और सिद्ध माने गए हैं। सिद्ध वे आत्माएँ हैं जो निर्वाण-लाभ कर चुकी हैं, जबकि अरिहंत वे जीवन्मुक्त आत्माएँ हैं, जो नैतिकपूर्णता को प्राप्त कर इस जगत् में लोक-मंगल के लिए कार्य करती हैं। जैन-परम्परा में अरिहंत और सिद्ध उपास्य अवश्य हैं, फिर भी वे गीता के ईश्वर से भिन्न हैं। गीता का ईश्वर सदैव ही उपास्य है, जबकि अरिहंत और सिद्ध उपासक से उपास्य बने हैं। जहाँ तक करुणा का प्रश्न है, सिद्ध, जो केवल उपासना के आदर्श हैं, स्वयं अपनी ओर से उपासक के लिए कुछ भी नहीं करते। उपासना के आदर्श के रूप में अरिहत यद्यपि साधना-मार्ग का उपदेश नहीं है, फिर भी यह माना गया है कि साधक की जो भी उपलब्धि है, वह स्वयं उसके प्रयत्नों का फल है। उपास्य के स्वरूप का ज्ञान तथा उपासना अपने में निहित परमात्मत्व को प्रकट करने के लिए है। बौद्ध-परम्परा में उपास्य के रूप में बुद्ध अथवा बुद्ध के सम्भोगकाय और कर्मकाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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