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नैतिक-जीवन का साध्य (मोक्ष)
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कि 'कर्म और उनके प्रतिफल के संयोग का कर्ता ईश्वर नहीं है, वरन् वह तो (कर्मों के) स्वभाव या प्रकृति से होता रहता है।10।
फिर भी, गीता में कुछ स्थल ऐसे हैं, जो इस पर अधिक विवेचन की अपेक्षा करते हैं। कर्मवाद के सिद्धान्त में कर्म को जो सर्वोच्च स्थान दिया गया है, उससे गीता का स्पष्ट विरोध है। गीता में ईश्वर का स्थान कर्म-नियमके ऊपर है। गीता में कर्म-सिद्धान्त की वह कठोरता नहीं है, जो जैन-विचार में है। गीता का कर्म-नियम उसके कारुणिक ईश्वर के इस उद्घोषसे कि मैं तुझे सर्व पापों से मुक्त कर दूंगा', शिथिल हो जाता है। ईश्वरीय-कृपा की
अपेक्षा और उसमें विश्वास कर्म-सिद्धान्त की व्यवस्था को चुनौती है। ईश्वर को कर्मनियम से ऊपर मान लेने से कर्म-सिद्धान्त खंडित हो जाता है।
यदिकर्म-नियम के बिना ईश्वर मात्र अपनी स्वच्छन्द इच्छा से किसी को मूर्ख और किसी को विद्वान्, किसी को राजा और किसी को रंक, किसी को संपन्न और किसी को विपन्न बनाए, तो उसे न्यायी नहीं कहा जा सकता, लेकिन ईश्वर कभी भी अन्यायी नहीं हो सकता। यही कारण है कि जो दर्शन ईश्वरको फलप्रदाता मानते हैं, वे भी यह स्वीकार करते हैं कि ईश्वर जीवों के कर्मानुसार ही उनके सुख-दुःख की व्यवस्था करता है। जैसे व्यक्ति के भले-बुरे कर्म होते हैं, उसके अनुसार ही ईश्वर उन्हें प्रतिफल देता है। ईश्वरीय-व्यवस्था पूरी तरह कर्म-नियम से नियन्त्रित है। ईश्वर अपनी इच्छा से उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता, लेकिन यह सर्वशक्तिसम्पन्न ईश्वर का उपहास है। वह एक ऐसा व्यवस्थापक है, जिसको पद तो दिया गया है, लेकिन अधिकार कुछ भी नहीं। अमरमुनिजी के शब्दों में, निश्चय ही यह सर्वशक्तिमान ईश्वर के साथ खिलवाड़ है। एक तरफ उसे सर्वशक्तिमान् मानना और दूसरी ओर उसे स्वतंत्र होकर अणुमात्र भी परिवर्तन का अधिकार नहीं देना निश्चय ही ईश्वर की महती विडम्बना है। यदि कारुणिक ईश्वर का कार्य कर्म-नियम से अनुशासित है, तो फिर न तो ऐसे ईश्वर का कोई महत्व रहता है और न उसकी करुणा का कोई अर्थ। एक ओर, ईश्वरीय-व्यवस्था को कर्म-नियम के अधीन मानना और दूसरी
ओर, कर्म-व्यवस्था के लिएईश्वर की आवश्यकता बताना, कर्म-नियम और ईश्वर-दोनों काही उपहास करना है। अच्छा तो यही है कि कर्मों में स्वयं ही अपना फल देने की शक्ति मान ली जाए, जिससे ईश्वर का ईश्वरत्व भी सुरक्षित रहे और कर्म-सिद्धान्त में कोई बाधा भी न आए।
जो विचारक कर्म-नियम के चालक के रूप में ईश्वर का स्थान स्वीकार करते हैं, वे भीभ्रांत धारणा में हैं। यदि ईश्वर कर्म-प्रवाह का चालक है, तो कर्म-प्रवाह अनादि नहीं
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