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________________ कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व 381 अनासक्ति एवं विवेक से समन्वित होकर मुक्ति के साधन बन जाती हैं। इस प्रकार, जैनविचारणा में कर्म और अकर्म अपने बाह्य-स्वरूप की अपेक्षा-कर्ता के विवेक और मनोवृत्ति पर निर्भर होते हैं। जैन-दर्शन में बन्धन की दृष्टि से क्रियाओं को दो भागों में बाँटा गया है(1) ईर्यापथिक-क्रियाएँ (अकर्म) और (2) साम्परायिक-क्रियाएँ (कर्म)। ईर्यापथिकक्रियाएँ निष्काम वीतरागदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति की क्रियाएँ हैं, जो बन्धनकारक नहीं हैं और साम्परायिक-क्रियाएँ, आसक्त व्यक्ति की क्रियाएँ हैं, जो बन्धनकारक हैं। संक्षेप में, वे समस्त क्रियाएँ, जो आस्रव एवं बन्धकी कारण हैं, कर्म हैं और वे समस्त क्रियाएँ, जो संवर एवं निर्जरा की हेतु हैं, अकर्म हैं। जैन-दृष्टि में अकर्म याईर्यापथिक-कर्म का अर्थ है- राग, द्वेष एवं मोहरहित होकर मात्र कर्त्तव्य अथवा शरीर-निर्वाह के लिए किया जाने वाला कर्म और कर्म का अर्थ है-राग-द्वेष एवं मोहसहित क्रियाएँ। जैन-दर्शन के अनुसार जो क्रिया या व्यापार राग-द्वेष और मोह से युक्त होता है, वह बन्धन में डालता है, इसलिए वह कर्म है और जो क्रिया-व्यापार राग-द्वेष और मोह से रहित होकर कर्त्तव्य या शरीर-निर्वाह के लिए कियाजाता है, वह बन्धनका कारण नहीं है, अत: अकर्म है। जिन्हें जैन-दर्शन में ईर्यापथिकक्रियाएँ या अकर्म कहा गया है, उन्हें बौद्ध-परम्परा अनुपचित-अव्यक्त या अकृष्णअशुक्ल कर्म कहती है और जिन्हें जैन-परम्परा साम्परायिक-क्रियाएँ या कर्म कहती है, उन्हें बौद्ध-परम्परा उपचित-कर्म या कृष्ण-शुक्ल-कर्म कहती है। इस सम्बन्ध में विस्तार से विचार करना आवश्यक है। 9. बौद्ध-दर्शन में कर्म-अकर्म का विचार ___बौद्ध-विचारणा में भी कर्म और उनके फल देने की योग्यता के प्रश्न को लेकर महाकर्म-विभंग में विचार किया गया है। बौद्ध-दर्शन का प्रमुख प्रश्न यह है कि कौन-से कर्म उपचित होते हैं। कर्म के उपचित होने का तात्पर्य संचित होकर फल देने की क्षमता के योग्य होने से है। बौद्ध-परम्परा का उपचित-कर्म जैन-परम्परा के विपाकोदयी-कर्म से और बौद्ध-परम्पराकाअनुपचित-कर्म जैन-परम्परा के प्रदेशोदयीकर्म (ईर्यापथिक-कर्म) से तुलनीय है। महाकर्मविभंग में कर्म की कृत्यता और उपचितता के सम्बन्ध को लेकर कर्म का एक चतुर्विध वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। 1. वे कर्म, जो कृत (सम्पादित) नहीं हैं, लेकिन उपचित (फल-प्रदाता) हैं- वासनाओं के तीव्र आवेग से प्रेरित होकर किए गए ऐसे कर्म-संकल्प, जो कार्यरूप में परिणत नहीं हो पाए, इस वर्ग में आते हैं, जैसे किसी व्यक्ति ने क्रोध या द्वेष के वशीभूत होकर किसी को मारने का संकल्प किया हो, लेकिन वह उसे मारने की क्रिया को सम्पादित न कर सका हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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