________________
376
भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
6. शुभ और अशुभ से शुद्ध की ओर जैन-दृष्टिकोण
जैन-विचारणा में शुभ-अशुभ अथवा मंगल-अमंगल की वास्तविकता स्वीकार की गई है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार तत्त्व नौ हैं, जिनमें पुण्य और पाप स्वतंत्र तत्त्व हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष-ये सात तत्त्व गिनाए हैं, इनमें पुण्य और पाप को नहीं गिनाया है, लेकिन यह विवाद महत्वपूर्ण नहीं, क्योंकि जो परम्परा उन्हें स्वतंत्र तत्त्व नहीं मानती है, वह भी उनको आम्रव-तत्त्व के अन्तर्गत मान लेती है। यद्यपि पुण्य और पाप मात्र आस्रव नहीं हैं, वरन् उनका बंध भी होता है और विपाक भी होता है, अत: आम्रव के शुभाम्रव और अशुभास्रव-ये दो विभाग करने से काम नहीं बनता, बल्कि बंध और विपाक में भी दो-दो भेद करने होंगे। इस कठिनाई से बचने के लिए ही पाप एवं पुण्य को स्वतंत्र तत्त्वों के रूप में गिन लिया गया है।
फिर भी, जैन-विचारणा निर्वाण-मार्ग के साधक के लिए दोनों को हेय और त्याज्य मानती है, क्योंकि दोनों ही बन्धन के कारण हैं। वस्तुत:, नैतिक-जीवन की पूर्णताशुभाशुभ या पुण्य-पाप से ऊपर उठ जाने में है। शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) का भेद जब तक बना रहता है, नैतिक-पूर्णता नहीं आती। अशुभ पर पूर्ण विजय के साथ ही व्यक्ति शुभ (पुण्य) से भी ऊपर उठकर शुद्ध दशा में स्थित हो जाता है।
ऋषिभाषित-सूत्र में ऋषि कहता है, पूर्वकृत पुण्य और पाप संसार-संतति के मूल हैं। आचार्य कुन्दकुन्द पुण्य-पाप, दोनों को बन्धन का कारण कहकर दोनों के बन्धकत्व काअन्तर भी स्पष्ट कर देते हैं। समयसार में वे कहते हैं कि अशुभ कर्म पाप (कुशील) और शुभ कर्म पुण्य (सुशील) कहे जाते हैं, फिर भी पुण्य-कर्म संसार (बन्धन) का कारण हैं, जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी लौह-बेड़ी के समान ही व्यक्ति को बन्धन में रखती है, उसी प्रकार जीवकृत सभी शुभाशुभ कर्म भी बन्धन के कारण हैं। फिर भी, आचार्य पुण्य को स्वर्ण-बेड़ी कहकर उसकी पापसे किञ्चित् श्रेष्ठता सिद्ध कर देते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र का कहना है कि पारमार्थिक-दृष्टि से पुण्य और पाप-दोनों में भेद नहीं कियाजा सकता, क्योंकि अन्ततोगत्वा दोनों ही सम्भव हैं। यही बात पं. जयचन्द्रजी भी कहते हैं
पुण्य पाप दोऊ करम, बंधरूप हुई मानि।
शुद्ध आत्मा जिनलह्यो, नमूचरम हित जानि।।" जैनाचार्यों ने पुण्य को निर्वाण की दृष्टि से हेय मानते हुएभी उसे निर्वाण का सहायक तत्त्व स्वीकार किया है। निर्वाण प्राप्त करने के लिए अन्ततोगत्वा पुण्य को त्यागना ही होता है, फिर भी वह निर्वाण में ठीक उसी प्रकार सहायक है, जैसे साबुन वस्त्र के मैल को साफ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org