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________________ 278 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन होता है, तिर्यंचमरकर मनुष्यहोता है, मनुष्य मरकर देव होताहै। इस प्रकार, इन नानावस्थाओं को प्राप्त करने के बाद उसे अनित्य कहा जाता। 10 नैतिक-विचारणा की दृष्टि से आत्माको नित्यानित्य (परिणामीनित्य) मानना ही समुचित है। नैतिकता की धारणा में जो विरोधाभास है, उसका निराकरण केवल परिणामीनित्य-आत्मवाद में ही सम्भव है। नैतिकता का विरोधाभास यह है कि जहाँ नैतिकता के आदर्श के रूप में जिस आत्मतत्व की विवक्षा है, उसे नित्य, शाश्वत, अपरिवर्तनशील, सदैव समरूप में स्थित, निर्विकार होना चाहिए. अन्यथा पुन: बन्धन एवं पतन की सम्भावनाएँ उठ खड़ी होंगी, वहीं दूसरी ओर, नैतिकता की व्याख्या के लिए जिस आत्मतत्त्व की विवक्षा है, उसे कर्ता, भोक्ता, वेदक एवं परिवर्तनशील होना चाहिए अन्यथा कर्म और उनके प्रतिफल और साधना की विभिन्न अवस्थाओं की तरतमता की उपपत्ति नहीं होगी। जैन-विचारकों ने इस विरोधाभास की समस्या के निराकरण का प्रयास किया है। प्रथमत:, उन्होंने एकान्त-नित्यात्मवाद और अनित्यात्मवाद के दोषों को स्पष्ट कर उनका निराकरण किया, फिर यह बताया है कि विरोधाभास तो तब होता है, जब नित्यता और अनित्यता को एक ही दृष्टि से माना जाए, लेकिन जब विभिन्न दृष्टियों से नित्यता और अनित्यताका कथन किया जाता है, तो उसमें कोई विरोधाभास नहीं रहता है। जैन-दर्शन आत्मा को पर्यायार्थिक-दृष्टि (व्यवहारनय) की अपेक्षा से अनित्य मानकर तथा द्रव्यार्थिक-दृष्टि (निश्चयनय) की अपेक्षा से नित्य मानकर अपनी आत्मा सम्बन्धी धारणा को नैतिक-दर्शन के अनुकूल सिद्ध करता है। 4. बौद्ध-दृष्टिकोण भगवान् बुद्ध भी आत्मा की शाश्वतवादी और उच्छेदवादी-धारणाओं को नैतिक एवं साधनात्मक-जीवन की दृष्टि से अनुचित मानते हैं। संयुत्तनिकाय में बुद्ध ने आत्मा के सम्बन्ध में शाश्वतवादी और उच्छेदवादी-दोनों प्रकार की धारणाओं को मिथ्यादृष्टि कहा है। वे कहते हैं, रूप, वेदना, संज्ञा आदि के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं होने पर ऐसी मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होती है- मैं मरकर नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अविपरिणामधर्मा होऊँगा, अथवा ऐसी मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होती है कि सभी उच्छिन्न हो जाते हैं, लुप्त हो जाते हैं, मरने के बाद नहीं रहते।'11 बुद्ध की दृष्टि में यदि यह माना जाता है कि वही अपरिवर्तिष्णु आत्मा मरकर पुनर्जन्म लेती है, तो शाश्वतवाद हो जाता है और यदि यह माना जाए कि माता-पिता के संयोग से चार महाभूतों से आत्मा उत्पन्न होती है और इसलिए शरीर के नष्ट होते ही आत्मा भी उच्छिन्न, विनष्ट और विलुप्त होती है, तो यह उच्छेदवाद है। अचेलकाश्यप को बुद्ध ने सविस्तार यह स्पष्ट कर दिया था कि वे शाश्वतवाद और उच्छेदवाद- इन दो अन्तों (एकान्तिक- मान्यताओं) को छोड़कर सत्य को मध्यम प्रकार से बताते हैं। बुद्ध सदैवही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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