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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
आत्मा अमर्त्त है, अत: उसको उस रूप में तो नहीं जान सकते. जैसे घट-पट आदि वस्तुओं का इन्द्रियप्रत्यक्ष के रूप में ज्ञान होता है, लेकिन इतने मात्र से उसका निषेध नहीं किया जा सकता। जैन आचार्यों ने इसके लिए गुण और गुणी का तर्क दिया है। घट आदि जिन वस्तुओं को हम जानते हैं, उनका भी यथार्थप्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि हमें जिनका प्रत्यक्ष होता है, वह घट के रूपादि गुणों का प्रत्यक्ष है, लेकिन घट मात्र रूप नहीं है, वह तो अनेक गुणों का समूह है, जिन्हें हम नहीं जानते, रूप (आकार) तो उनमें से एक गुण है। जबरूपगुण के प्रत्यक्षीकरण कोघट का प्रत्यक्षीकरण मान लेते हैं और हमें कोई संशय नहीं होता, तो फिर ज्ञानगुण से आत्मा का प्रत्यक्ष क्यों नहीं मान लेते।12
आधुनिक वैज्ञानिक भी अनेक तत्त्वों का वास्तविक-प्रत्यक्ष नहीं कर पाते हैं, जैसे ईथर; फिर भी कार्यों के आधार पर उनका अस्तित्व मानते हैं एवं स्वरूप-विवेचन भी करते हैं। फिर आत्मा के चेतनात्मक कार्यों के आधार पर उसके अस्तित्व को क्यों न स्वीकार किया जाए ? वस्तुतः,आत्मा या चेतना के अस्तित्व का प्रश्न महत्वपूर्ण होते हुए भी विवाद का विषय नहीं है। भारतीय-चिन्तकों में चार्वाक एवं बौद्ध तथा पश्चिम में ह्यूम, जेम्स आदि विचारक आत्मा के अस्तित्व का निषेध करते हैं। वस्तुतः, उनका निषेधआत्मा के अस्तित्व का निषेध नहीं, वरन् उसकी नित्यता का निषेध है। वे आत्मा को एक स्वतन्त्र नित्य-द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन चेतन-अवस्था या चेतना-प्रवाह के रूप में आत्मा का अस्तित्व तो उन्हें भी स्वीकार हैं। चार्वाक-दर्शन भी यह नहीं कहता कि आत्मा का सर्वथा अभाव है, उसका निषेध मात्र आत्मा को स्वतन्त्र मौलिक-तत्त्व मानने से है। बौद्ध-विचारक अनात्मवाद की प्रतिस्थापना में आत्मा (चेतना) का निषेध नहीं करते, वरन् उसकी नित्यता का निषेध करते हैं। राम भी अनुभूति से भिन्न किसी स्वतन्त्र आत्मतत्त्व का ही निषेध करते हैं। उद्योतकर का न्यायवार्त्तिक में यह कहना समुचित जान पड़ता है कि आत्मा के अस्तित्व में दार्शनिकों में सामान्यत: कोई विवाद ही नहीं है; यदि विवाद है, तो उसका सम्बन्ध आत्मा के विशेष स्वरूप से है (न कि उसके अस्तित्व से)। स्वरूप की दृष्टि से कोई शरीर को ही आत्मा मानता है, कोई बुद्धि को, कोई इन्द्रिय या मन को और कोई विज्ञान-संघात को आत्मा समझता है। कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं, जो इन सबसे पृथक् स्वतन्त्र आत्मतत्त्व के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। जैन-दर्शन और गीता आत्मा को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार करते हैं। 4. आत्मा एक मौलिक-तत्त्व
आत्मा एक मौलिक-तत्त्व है, अथवा अन्य किसी तत्व से उत्पन्न हुआ है, यह प्रश्न भीमहत्वपूर्ण है। सभी दर्शन यह मानते हैं किसंसारआत्म और अनात्म का संयोग है, लेकिन इनमें मूल तत्त्व क्या है? यह विवाद का विषय है। इस सम्बन्ध में चार प्रमुख धारणाएँ हैं- (1)
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