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भारतीय आधारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
और ऐसी स्थिति में हम यह भी पाएंगे कि जैन-दर्शन का वह वर्गीकरण मार्टिन्यू के उपर्युक्त तारतम्य से भी काफी समानता रखेगा। क्रम की दृष्टि से इन्हें इस प्रकार रखा जा सकता है(1) द्वेष, (2) राग, (3) लोभ, (4) मान, (5) माया-कपटवृत्ति, (6) क्रोध, (7) ओघ, (8) भय, (9) परिग्रह, (10) मैथुन, (11) आहार, (12) लोक-सामाजिकता और (13) धर्म। कुछ मतभेदों को छोड़कर यह क्रम-व्यवस्था मार्टिन्यू के कर्मस्रोत के नैतिक-तारतम्य से काफी निकट है।
एक अन्य अपेक्षा से भी मार्टिन्यू के कर्मस्रोत के नैतिक तारतम्य की तुलना जैनआचारदर्शन से की सकती है। यदि हम कर्मप्रेरकों के रूप में मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकृचारित्र तथा आहार, भय, मैथुन और परिग्रह-इन चार संज्ञाओं को स्वीकार करें, तो भी बन्धन की तीव्रता की दृष्टि से एक क्रम तैयार किया जा सकता है, जो मार्टिन्यू के पूर्वोक्त तारतम्य के काफी निकट होगा। वह क्रम इस प्रकार होगा
1. मिथ्यादर्शन-सन्देहशीलता, आकांक्षा एवं अश्रद्धा। 2. मिथ्याज्ञान-नैतिक-विवेक एवं बुद्धि का अभाव। 3. मिथ्याचारित्र-क्रोध, मान, माया और लोभ के कर्मप्रेरक। 4. भयवृत्ति-भय से उत्पन्न कर्म। 5. परिग्रह-संचय की वृत्ति एवं आसक्तिभाव। 6. मैथुन-ऐन्द्रिक-सुखों की इच्छा एवं यौनप्रवृत्तियाँ। 7. आहार-शरीर-रक्षा एवं क्षुधानिवृत्ति की क्रियाएँ। 8. सम्यक्चारित्र-सदाचरण। 9. सम्यग्ज्ञान-नैतिक-विवेक। 10. सम्यग्दर्शन-श्रद्धा एवं आत्मविश्वास।
यह क्रम अपने पूर्णतावादी दृष्टिकोण के आधार पर उन दोषों से ग्रसित भी नहीं होता, जो दोष मार्टिन्यू के नैतिक-दर्शन में हैं।
आन्तरिक-विधानवाद के विरोध में साध्यवादी और विकासवादी-सिद्धान्त आते हैं। अगले पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि उनका जैन-दर्शन के साथ कितना साम्य है। 7. प्रयोजनात्मक अथवा साध्यवादी-सिद्धान्त
नैतिक-प्रतिमान के दूसरे प्रकार के सिद्धान्तों को प्रयोजनात्मकया साध्यवादी सिद्धान्त कहते हैं। इन सिद्धान्तों के अनुसार किसी कर्म की नैतिकता का निर्णय उसके साध्य, प्रयोजन, परिणाम, आदर्श, परमशुभ अथवा मूल्य के आधार पर होना चाहिए, लेकिन प्रयोजनवादी, विचारक कर्म के वास्तविक लक्ष्य के विषय में एकमत नहीं हैं। इन विचारकों ने विभिन्न साध्य
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