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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
दृष्टिकोण रहे हैं। प्रथम तो यह कि कुछ विचारकों ने किसी भी नैतिक-प्रतिमान को स्वीकार ही नहीं किया है। इन विचारकों की परम्परा नैतिक-सन्देहवाद' के नाम से जानी जाती है। दूसरे, यह कि कुछ विचारकों ने नैतिक-प्रतिमान को तो स्वीकार किया, लेकिन वह नैतिक-प्रतिमान क्या है, इन विषय में उनमें काफी मतभेद हैं। पाश्चात्य-विचारकों के द्वारा विभिन्न नैतिक-प्रतिमानों की स्थापना की गई और फलस्वरूप आचारदर्शन के विभिन्न सिद्धान्तों का निर्माण हुआ। उन सबका विस्तृत एवं गहन चिन्तन तो यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी उन विभिन्न धारणाओं के साथ जैन एवं अन्य दर्शन का क्या सम्बन्ध हो सकता है, इस पर संक्षिप्त विचार करना उचित होगा। सर्वप्रथम 'नैतिक-सन्देहवाद' को ही लें। 3. नैतिक-सन्देहवाद और जैन-आचारदर्शन
नैतिक-सन्देहवाद की विचारधारा भारत और पाश्चात्य-देशों में प्राचीन समय से चली आ रही है। भारत के चार्वाक दार्शनिक और ग्रीस के सोफिस्ट विचारक इस विचारपरम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारतीय-परम्परा में नैतिक-सन्देहवाद सम्बन्धी विचार प्रचलितथे, ऐसे सन्दर्भ जैन, बौद्ध और वैदिक-ग्रन्थों में उपलब्ध हैं।
जैन आचार्यों ने सूत्रकृतांग एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इस विचारधारा का उल्लेख किया है। इस विचारधारा के अनुसार धर्म (उचित) और अधर्म (अनुचित) की शंका में नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि यह सुखों की उपलब्धि में बाधक है, गधे के सींग के समानधर्म और अधर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं है। महाभारत में भी यक्ष के प्रश्नों के उत्तर में युधिष्ठिर ने यही कहा था कि तर्क के द्वारा धर्माधर्म का निर्णय करना सम्भव नहीं है, श्रुति भी इस विषय में एकमत नहीं है, ऋषियों के कथन भी परस्पर विरोधी हैं, अत: उनके वचनों को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता। महावीर और बुद्ध के समकालीन अज्ञानवादी विचारक संजय वेलट्ठिपुत्त इसी नैतिक-सन्देहवाद का प्रतिनिधित्व करते थे। नैतिकसन्देहवाद मूलरूप में यह मानकर चलता है कि किसी भी ऐसे नैतिक-प्रतिमान को खोज पाना असम्भव है, जिसे धर्माधर्म या उचित-अनुचित के निर्णय का प्रामाणिक आधार बनाया जा सके।
पाश्चात्य-आचारदर्शन में नैतिक-सन्देहवाद कीधारणा तार्किक-आधारों पर पुष्ट हुई है। नैतिक-सन्देहवादी पाश्चात्य-विचारक इस सम्बन्ध में तो एकमत हैं कि वे नैतिकमानक के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन नैतिक-मानक को अस्वीकार करने के उनके तर्क अलग-अलग हैं। उनके तीन वर्ग हैं। (अ) नैतिक-सन्देहवाद की अर्थवैज्ञानिक युक्ति और तार्किक-भाववाद
तार्किक-भाववाद को मानने वाले विचारकों में कारनेप, रसल एवं एअर प्रमुख हैं। ये नैतिक-आदेश एवं नैतिक-प्रत्ययों के भाषाविषयक विवेचन के आधार पर यह सिद्ध
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