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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
जहाँ तक व्यक्ति के चैतसिक या आन्तरिक-समत्व का प्रश्न है, हम उसे वीतराग मनोदशा या अनासक्त चित्तवृत्ति की साधना मान सकते हैं। फिर भी समत्व की साधना का यह रूप हमारे वैयक्तिक एवं आन्तरिक-जीवन से अधिक सम्बन्धित है, यह व्यक्ति की मनोदशा का परिचायक है। यह ठीक है कि व्यक्ति की मनोदशा का प्रभाव उसके आचरण पर भी होता है और हम व्यक्ति के आचरण का मूल्यांकन करते समय उसके आचरण के आन्तरिक-पक्ष पर विचार भी करते हैं, किन्तु सदाचार यादुराचार का प्रश्न हमारे व्यवहार के बाह्य एवं सामुदायिक-पक्ष के साथ अधिक जुड़ा हुआ है। जब भी हम सदाचार या दुराचार के किसी मानदण्ड की बात करते हैं, तो हमारी दृष्टि व्यक्ति के आचरण के बाह्यपक्ष पर, अथवा उस आचरण का दूसरों पर क्या प्रभाव या परिणाम होता है- इस बात पर अधिक होती है। सदाचार या दुराचार का प्रश्न केवल कर्ता के आन्तरिक मनोभावों या वैयक्तिक जीवन से सम्बन्धित नहीं है, वह आचरण के बाह्य प्रारूप तथा हमारे सामाजिकजीवन में उस आचरण के परिणामों पर विचार करता है। यहाँ हमें सदाचार और दुराचार की व्याख्या के लिए कोई ऐसी कसौटी खोजनी होगी, जो आचार के बाह्य-पक्ष अथवा हमारे व्यवहार के सामाजिक-पक्षको भी अपने में समेट सके। सामान्यतया, भारतीय-चिन्तन में इस सम्बन्ध में एक सर्वमान्य दृष्टिकोण यह है कि परोपकारही पुण्य है और परपीड़ा ही पाप है। तुलसीदास ने इसे निम्नलिखित शब्दों में प्रकट किया है
___ 'परहित सरिसधरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।' अर्थात्, व्यक्ति का वह आचरण, जो दूसरों के लिए कल्याणकारी या हितकारी है, सदाचार है, पुण्य है और जो दूसरों के लिए अकल्याणकारी है, अहितकर है, वही पाप है, दुराचार है। जैन-धर्म में सदाचार के एक ऐसे ही शाश्वत मानदण्ड की चर्चा हमें आचारांगसूत्र में उपलब्ध होती है। वहाँ कहा गया है, 'भूतकाल में जितने अर्हत हो गए हैं, वर्तमानकाल में जितने अर्हत् हैं और भविष्य में जितने अर्हत् होंगे, वेसभी यह उपदेश करते हैं कि सभी प्राणों, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्त्वों को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है,'' किन्तु मात्र दूसरे की हिंसा के निषेध को, या दूसरों के हितसाधन को ही सदांचार यादुराचार की कसौटी नहीं माना जा सकता है। ऐसी अवस्थाएँ सम्भव हैं कि जब मेरे असत्य सम्भाषण एवं अनैतिक-आचरण के द्वारा दूसरों का हितसाधन होता हो, अथवा कम से कम किसी का अहित न होता हो, किन्तु क्या ऐसे आचरण को सदाचार कहने का साहस कर सकेंगे? क्या वेश्यावृत्ति के माध्यम से अपार धनराशि को एकत्रित कर उसे लोकहित के लिए व्यय करने मात्र से कोई स्त्री सदाचारी की कोटि में आ सकेगी, अथवा यौन-वासना की सन्तुष्टि के वे रूप, जिसमें किसी भी दूसरे प्राणी की हिंसा नहीं है, दुराचार की कोटि में नहीं आएंगे?
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