SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -11 3. नैतिक नियम-खण्ड। प्रथम नैतिक सिद्धान्तखण्डकेभारतीयआचारदर्शन का स्वरूप नामक प्रथम अध्याय में नैतिकता की परिभाषा और नैतिक प्रत्ययों के विवेचन के साथ ही समालोच्य आचारदर्शनों की विशेषताओं, उनका पाश्चात्य-परम्परा से अन्तर, उन पर पाश्चात्य-विचारकों के आक्षेप और उन आक्षेपों का समाधान प्रस्तुत किया गया है। दूसरे अध्याय में आचारदर्शन की अध्ययन-विधि के रूप में पारमार्थिक और व्यावहारिक विधियों की विवेचना और भारतीय तथा पाश्चात्य परम्परा के साथ उनकी तुलना की गई है। तीसरे अध्याय में नैतिकता के निरपेक्ष और सापेक्ष स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत किया गया है और उस आधार पर उत्सर्ग और अपवाद की समस्या को भी समझने का प्रयास किया गया है। चौथे अध्याय में नैतिक-निर्णय के स्वरूप एवं विषय के सन्दर्भ में जैन-दृष्टिकोणऔर पाश्चात्य परम्परा के विचारों को तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है। पाँचवें अध्याय में नैतिकता के प्रतिमान की समस्या का पाश्यात्य आचार-दर्शन और जैन-दृष्टिकोण के आधार पर सविस्तार निरूपण किया गया है। इसी अध्याय में पुरुषार्थ चतुष्टय का विवेचन भी भारतीय मूल्यसिद्धान्त के रूप में किया गया है। इस प्रकार प्रथम खण्ड में 5 अध्याय हैं। दूसरे खण्ड में अध्याय छ: से पन्द्रह तक दस अध्याय हैं। छठे अध्याय में आचारदर्शन के तात्त्विक आधार के रूप में नैतिकता की दृष्टि से सत् के स्वरूप की समीक्षा की गई है और समालोच्य आचार-दर्शनों की तात्त्विक मान्यताओं पर विचार एवं तुलना की गई है। सातवें अध्याय में आत्मा के स्वरूप की नैतिक दृष्टि से समीक्षा और बौद्ध एवं गीता के दृष्टिकोणों से उसकी तुलना की गई है। आठवें अध्याय में आत्मा की अमरता के सम्बन्ध में जैन, बौद्ध और गीता के दृष्टिकोणों को प्रस्तुत किया गया है। नौवें अध्याय में आत्मा की स्वतन्त्रता पर नियतिवाद और पुरुषार्थवाद के सन्दर्भ में विचार किया गया है। दसवें अध्याय में कर्म-सिद्धान्त पर समालोच्य आचार-दर्शनों के दृष्टिकोणों का विश्लेषण किया गया है। ग्यारहवें अध्याय में कर्म के शुभत्व, अशुभत्व और शुद्धत्व का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किया गया है। बारहवें अध्याय में बन्धन एवंदुःख के कारणों का विश्लेषण तथा इस सम्बन्ध में जैन और बौद्ध-मन्तव्यों की सविस्तार तुलना प्रस्तुत की गई है। तेरहवें अध्याय में बन्धन से मुक्ति की प्रक्रिया के सम्बन्ध में संयमात्मक जीवन-दृष्टि से संवर और निर्जरा पर विचार किया गया है। चौदहवें अध्याय में नैतिक-जीवन के साध्य वीतराग, अर्हत्या स्थितप्रज्ञ की अवस्था तथा मोक्ष के स्वरूप पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया गया है। पन्द्रहवें अध्याय में नैतिकता, धर्म और ईश्वर के पारस्परिक सम्बन्धों की विवेचना की गई है। तीसरे मनोवैज्ञानिक खण्ड में सोलह से उन्नीस तक चार अध्याय हैं। सोलहवें अध्याय में आचार-दर्शन और मनोविज्ञान का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए कर्म-प्रेरकों, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy