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'प्रवृत्यात्मक निवृत्ति का मार्ग था, जिसका प्रतिनिधित्व गीता से प्रभावित वर्तमान हिन्दु परम्परा करती है। 3. समन्वय का तीसरा रूप था प्रवृत्ति और निवृत्ति की अतियों से बचकर मध्यम मार्ग पर चलना; इसका दिशानिर्देश भगवान् बुद्ध ने किया। उनके आचार-दर्शन में परिवार के त्याग के अर्थ में निवृत्ति का स्थान था, तो सामाजिक कल्याण के अर्थ में प्रवृत्ति का।
___ वस्तुत:, उपर्युक्त तीनों विचारणाएँही अपने समन्वित रूप में समग्र भारतीय आचारपरम्परा की पृष्ठभूमि तैयार करती हैं। वर्तमान युग तक इनके बाह्य रूप में अनेक परिवर्तन होते रहे, फिर भी इनकी पृष्ठभूमि बहुत कुछ वही बनी रही है। आज भी ये तीनों परम्पराएँ भारतीय नैतिक चिन्तन के एक पूर्ण स्वरूप का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। यही नहीं, तीनों परम्पराएँ अपने आन्तरिक रूप में एक-दूसरे के इतनी निकट हैं कि अपने अध्येता को तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने को प्रेरित कर देती हैं। अध्ययन-सामग्री एवं क्षेत्र
उपरोक्त तीनों परम्पराओं में से जैन-परम्परा में आचार-दर्शन की दृष्टि से भी सैद्धान्तिक रूप में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ है। यद्यपि आगमों की अपेक्षा पश्चकालीन ग्रन्थों में आचार सम्बन्धी नियमों में थोड़े-बहत व्यावहारिक परिवर्तन अवश्य परिलक्षित होते हैं, फिर भी जैन-परम्परा की यह विशिष्टता है कि इतनी लम्बी समयावधि में वह अपने मूल केन्द्र से अधिक दूर नहीं हो पायी। आज भी वह निवृत्यात्मक प्रवृत्ति के अपने मूल स्वरूप से इधर-उधर कहीं नहीं भटकी है। पश्चकालीन ग्रन्थों में भी आगम के विचारों का ही विकास देखा जाता है, अत: अध्ययन की दृष्टि से मूल आगमों के साथ-साथ परवर्ती आचार्यों के ग्रन्थों एवं दृष्टिकोणों का उपयोग भी किया गया है।
ईशावास्योपनिषद् एवं गीता की मूलभूत धारणा पर जिस हिन्दू आचार-परम्परा का विकास हुआ, उसमें सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दृष्टि से वर्तमान काल तक अनेक परिवर्तन हुए और परिणामस्वरूप विभिन्न मान्यताएँ बनीं, जो एक-दूसरे के विरोध में भी खड़ी रहीं, अत: प्रस्तुत ग्रन्थ में उन सबको सम्मिलित करना सम्भव नहीं था, इसलिए हिन्दू आचार-परम्परा के प्रतिनिधि के रूप में गीता का चयन करना ही उचित प्रतीत हुआ, क्योंकि हिन्दू-परम्परा के आधारभूत ग्रन्थों में उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र एवं गीता की प्रस्थानत्रयी ही प्रमाणभूत है। चाहे हिन्दू-परम्परा में कितने ही पारस्परिक विरोध हों, चाहे हिन्दूआचार की परिधियाँ अनेक हों, फिर भी केन्द्र सबका एक ही है। सभी अपने पक्ष का समर्थन प्रस्थानत्रयी के आधार पर करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार, गीताआजभी सभी की श्रद्धेय है और हिन्दू-आचारदर्शन का प्रतिनिधित्व करने में समर्थ है। डॉ. राधाकृष्णन् लिखते हैं- “यह (गीता) हिन्दू धर्म के किसी एक सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करती,
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