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बन्धन से मुक्ति की ओर (संवर और निर्जरा)
नाएँ) बाईस परीषह और पाँच सामायिक चारित्र सम्मिलित हैं । ये सभी कर्मास्त्रव का निरोध कर आत्मा को बन्धन से बचाते हैं, अतः संवर कहे जाते हैं। इन सबका विशेष सम्बन्ध संन्यास या श्रमण जीवन से है।
उपर्युक्त आधारों पर यह स्पष्ट हो जाता है कि संवर का तात्पर्य ऐसी मर्यादित जीवन-प्रणाली है जिसमें विवेकपूर्ण आचरण (क्रियाओं का सम्पादन) मन, वाणी और शरीर की अयोग्य प्रवृत्तियों का संयमन, सद्गुणों का ग्रहण, कष्टसहिष्णुता और समत्व की साधना समाविष्ट है। जैन-दर्शन में संवर के साधक से यही अपेक्षा की गई है कि उसका प्रत्येक आचरण संयत एवं विवेकपूर्ण हो, चेतना सदैव जागृत रहे ताकि इन्द्रियों के विषय उसमें राग-द्वेष की प्रवृत्तियाँ पैदा न कर सकें। जब इन्द्रियाँ और मन अपने विषयों के सम्पर्क में आते हैं तो आत्मा में विकार या वासना उत्पन्न होने की सम्भावना खड़ी होती है, अत: साधना-मार्ग के पथिक को सदैव जागृत रहते हुए विषय-सेवन रूप छिद्रों से आने वाले कर्मास्रव या विकार से अपनी रक्षा करनी है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को समेटकर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक भी अध्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों से सुरक्षित रखे।' मन, वाणी, शरीर और इन्द्रिय-व्यापारों का संयमन ही नैतिक जीवन की साधना का लक्ष्य है। सच्चे साधक की व्याख्या करते हुए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि जो सूत्र तथा उसके रहस्य को जानकर हाथ, पैर, वाणी, तथा इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है ( अर्थात् सन्मार्ग में विवेकपूर्वक प्रयत्नशील रहता है ), अध्यात्मरस में ही जो मस्त रहता है और अपनी आत्मा को समाधि में लगाता है, वही सच्चा साधक है । २ J३. बौद्ध-दर्शन में संवर
त्रिपिटक साहित्य में संवर शब्द का प्रयोग बहुत हुआ है, लेकिन कायिक, वाचिक एवं मानसिक प्रवृतियों के संयमन के अर्थ में ही । भगवान् बुद्ध संयुत्तनिकाय के संवरसुत्त में असंवर और संवर कैसे होता है इसके विषय में कहते हैंभिक्षुओ ! संवर और असंवर का उपदेश करूगा । उसे सुनो। भिक्षुओ कसे असंवर होता है ?
भिक्षुओ ! चक्षुविज्ञेय रूप, श्रोत्रविज्ञेय शब्द, घ्राणविज्ञेय गन्ध, जिह्वा विज्ञेय रस, कायाविज्ञेय स्पर्श, मनोविज्ञेय धर्म, अभीष्ट, सुन्दर, लुभावने, प्यारे, कामयुक्त, राग में डालनेवाले होते हैं । यदि कोई भिक्षु उसका अभिनन्दन करे, उसकी बड़ाई
१. सूत्रकृतांग, ११८।१६.
२. दशवकालिक, १०।१५.
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