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________________ जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन किया गया है।' उत्तराध्ययनसूत्र में तो संवर के स्थान पर संयम को ही आस्रवनिरोध का कारण कहा गया है। वस्तुतः संवर का अर्थ है अनैतिक या पापकारी प्रवृत्तियों से अपने को बचाना और संवर शब्द इस अर्थ में संयम का पर्याय ही सिद्ध होता है। बौद्ध-परम्पपा में संवर शब्द का प्रयोग संयम के अर्थ में ही हुआ है। धम्मपद आदि में प्रयुक्त संवर शब्द का अर्थ संयम ही किया गया है।' सवर शब्द का यह अर्थ करने में जहाँ एक ओर हम तुलनात्मक विवेचन को सुलभ बना सकेंगे वहीं दूसरी सोर जैन-परम्परा के मूल आशय से भी दूर नहीं जायेंगे । लेकिन संवर का यह निषेधक अर्थ ही सब-कुछ नहीं है, वरन् उसका एक विधायक पक्ष भी है। शुभ अध्यवसाय भी संवर के अर्थ में स्वीकार किये गये हैं, क्योंकि अशुभ की निवृत्ति के लिये शुभ का अंगीकार प्राथमिक स्थिति में आवश्यक है। वृत्ति-शून्यता के अभ्यासी के लिए भी प्रथम शुभ-वृत्तियों को अंगीकार करना होता है। क्योंकि चित्त का शुभवृत्ति से परिपूर्ण होने पर अशुभ के लिए कोई स्थान नहीं रहता। अशुभ को हटाने के लिए शुभ आवश्यक है। संवर का अर्थ शुभवृत्तियों का अभ्यास भी है। यद्यपि वहाँ शुभ का मात्र वही अर्थ नहीं है जिसे हम पुण्यास्रव या पुण्यबंध के रूप में जानते हैं । २. जैन परम्परा में संवर का वर्गीकरण (अ) जैन-दर्शन में संवर के दो भेद हैं.-१. द्रव्य संवर और २. भाव संवर । द्रव्यसंग्रह में कहा गया है कि कर्मास्रव को रोकने में सक्षम आत्मा की चैत्तसिक स्थिति भावसंवर है, और द्रव्यास्रव को रोकने वाला उस चैत्तसिक स्थिति का परिणाम द्रव्य संवर है। (ब) संदर के पाँच अंग या द्वार बताये गये हैं-१. सम्यक्त्व-यथार्थ दृष्टिकोण, २. विरति-मर्यादित या संयमित जीवन, ३. अप्रमत्तता-आत्म-चेतनता, ४. अकषायवृत्ति-क्रोधादि मनोवेगों का अभाव और ५. अयोग--अक्रिया । (स) स्थानांगसूत्र में संवर के आठ भेद निरूपित हैं-१. श्रोत्र इन्द्रिय का सयम, २. चक्षु इन्द्रिय का संयम, ३. घ्राण इन्द्रिय का संयम, ४. रसना इन्द्रिय का संयम, ५. स्पर्श इन्द्रिय का संयम, ६. मन का संयम, ७. वचन का संयम, ८. शरीर का संयम । . (द) प्रकारान्तर से जैनागमों में संवर के सत्तावन भेद भी प्रतिपादित हैं, जिनमें पांच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ, दस विध यति-धर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ (भाव१. स्थानांग, ५।२।४२७. २. उत्तराध्ययन, २९।२६. ३. धम्मपद, ३६०-३६३. ४. द्रव्यसंग्रह, ३४. ५. समवायांग, ५।५. ६. स्थानांग, ८।३।५९८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003604
Book TitleJain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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