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________________ ७४ ग्रन्थ में प्रतिष्ठा कम होने के भय के बन्ध का कारण माना गया है । योनि का कारण बताया है । " ( स ) मानव जीवन की प्राप्ति के चार कारण – १. सरलता, २. विनय - शीलता, ३. करुणा और ४. अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना । तत्त्वार्थ सूत्र में १. अल्प आरम्भ, २ . अल्प परिग्रह, ३. स्वभाव की सरलता और ४. स्वभाव की मृदुता को मनुष्य आयु के बन्ध का कारण कहा गया है । ३ ४ (द) दैवीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण - १. सराग ( सकाम ) संयम का पालन, २. संयम का आंशिक पालन, ३. सकाम तपस्या ( बाल तप) ४. स्वाभाविक रूप में कर्मों के निर्जरित होने से । तत्त्वार्थसूत्र में भी यही कारण माने गये हैं । कर्म-ग्रन्थ के अनुसार अविरत सम्यकदृष्टि मनुष्य या तिर्यंच, देशविरत श्रावक, सरागीसाधु, बाल-तपस्वी और इच्छा नहीं होते हुए भी परिस्थिति वश भूख-प्यास आदि को सहन करते हुए अकाम - निर्जरा करनेवाले व्यक्ति देवायु का बन्ध करते हैं । * - १. आकस्मिक मरण - प्राणी अपने जीवनकाल में प्रत्येक क्षण आयु कर्म को भोग रहा है और प्रत्येक क्षण में आयु कर्म के परमाणु भोग के पश्चात् पृथक् होते रहते हैं । जिस समय वर्तमान आयुकर्म के पूर्वबद्ध समस्त परमाणु आत्मा से पृथक् हो जाते हैं उस समय प्राणी को वर्तमान शरीर छोड़ना पड़ता है । वर्तमान शरीर छोड़ने के पूर्व ही नवीन शरीर के आयुकर्म का बन्ध हो जाता है । लेकिन यदि आयुष्य का भोग इस प्रकार नियत है तो आकस्मिकमरण की व्याख्या क्या ? इसके प्रत्युत्तर में जैन-विचारकों ने आयुकर्म का भोग दो प्रकार का माना -- क्रमिक, २. आकस्मिक । क्रमिक भोग में स्वाभाविक रूप से आयु का भोग धीरेधीरे होता रहता है, जबकि आकस्मिक भोग में किसी कारण के उपस्थित हो जाने पर आयु एक साथ ही भोग ली जाती है । इसे ही आकस्मिकमरण या अकाल मृत्यु कहते हैं । स्थानांगसूत्र में इसके सात कारण बताये गये हैं - १. हर्ष - शोक का अतिरेक, २. विष अथवा शस्त्र का प्रयोग, ३. आहार की अत्यधिकता अथवा सर्वथाअभाव ४. व्याधिजनित तीव्र वेदना, ५. आघात ६. सर्पदंशादि और ७. श्वासनिरोध । ६ जैन कर्म सिद्धान्त एक तुलनात्मक अध्ययन से पाप का प्रकट न करना भी तिर्यञ्च आयु तत्त्वार्थ सूत्र में माया ( कपट) को ही पशु ६. नाम कर्म जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न रंगों से अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी १. कर्मग्रन्थ, ११५८. ३. वही, ६।१८. ५. कर्मग्रन्थ, १।५९. Jain Education International २. तत्त्वार्थसूत्र, ६।१७. ४. वही, ६।२०. ६. स्थानांग, ७१५६१. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003604
Book TitleJain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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