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________________ कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया २. प्रबलतम मान, ३. प्रबलतम माया (कपट), ४. प्रबलतम लोभ, ५. अति क्रोध, ६. अति मान, ७. अति माया (कपट), ८. अति लोभ, ९.साधारण क्रोध, १०. साधारण मान, ११. साधारण माया (कपट), १२. साधारण लोभ, १३. अल्प क्रोध, १४.अल्प मान, १५. अल्प माया (कपट) और, १६ अल्प लोभ ये सोलह कषाय हैं। उपर्युक्त कषायों को उत्तेजित करने वाली नौ मनोवृत्तियों ( उपकषाय ) हैं.--१. हास्य, २. रति (स्नेह, राग), ३. अरति (द्वेष), ४. शोक, ५. भय, ६. जगप्सा (घृणा), ७. स्त्रीवेद (पुरुष सहवास की इच्छा), ८. पुरुषवेद (स्त्री सहवास की इच्छा), ९. नपुंसकवेद (स्त्री-पुरुष दोनों के सहवास की इच्छा)। ____ मोहनीय कर्म विवेकाभाव है और उसी विवेकाभाव के कारण अशुभ की ओर प्रवृत्ति की रुचि होती है। अन्य परम्पराओं में जो स्थान अविद्या का है, वहीं स्थान जैन परम्परा में मोहनीय कर्म का है। जिस प्रकार अन्य परम्पराओं में बन्धन का मूल कारण अविद्या है, उसी प्रकार जैन परम्पराओं में बन्धन का मूल कारण मोहनीय कर्म है। मोहनीय कर्म का क्षयोपशम ही नंतिक विकास का आधार है। ५. आयुष्य कर्म जिस प्रकार बेड़ी कैदी की स्वाधीनता में बाधक है, उसी प्रकार जो कर्म परमाणु आत्मा को विभिन्न शरीरों में नियत अवधि तक कंद रखते हैं, उन्हें आयुष्य कर्म कहते हैं। यह कर्म निश्चय करता है कि आत्मा को किस शरीर में कितनी समयावधि तक रहना है। आयुष्य कर्म चार प्रकार का है—१. नरक आयु, २. तिर्यच आयु (वानस्पतिक एवं पशु जीवन) ३. मनुष्य आयु और ४. देव आयु ।' आयुष्य-कर्म के बन्ध के कारण--सभी प्रकार के आयुष्य-कर्म के बन्ध का कारण शील और व्रत से रहित होना माना गया है। फिर भी किस प्रकार के आचरण से किस प्रकार का जीवन मिलता है, उसका निर्देश भी जैन आगमों में उपलब्ध है। स्थानांगसूत्र में प्रत्येक प्रकार के आयुष्य-कर्म के बन्ध के चार-चार कारण माने गये हैं। ३ ... (अ) नारकीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण-१. महारम्भ (भयानक हिंसक कर्म), २. महापरिग्रह (अत्यधिक संचय वृत्ति), ३. मनुष्य, पशु आदि का वध करना, ४. मांसाहार और शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन । .... (ब) पाशविक जीवन की प्राप्ति के चार कारग-१. कपट करना, २. रहस्यपूर्ण कपट करना, ३. असत्य भाषण, ४. कम-ज्यादा तोल-माप करना। कर्म २. वही, ६।१९. १. तत्त्वार्थसूत्र, ८।११. ३. स्थानांग, १।४।४।३७३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003604
Book TitleJain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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