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जैन कम सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन
३. प्रमाद-सामान्यतया समय का अनुपयोग या दुरुपयोग प्रमाद है । लक्ष्योन्मुख प्रयास के स्थान पर लक्ष्य-विमुख प्रयास समय का दुरुपयोग है, जबकि प्रयास का अभाव अनुपयोग है । वस्तुतः प्रमाद आत्म-चेतना का अभाव है । प्रमाद पाँच प्रकार का माना गया है
(क) विकथा-जीवन के लक्ष्य (साध्य) और उसके साधना मार्ग पर विचार नहीं करते हुए अनावश्यक चर्चाएँ करना । विकथाएँ चार प्रकार की है-(१) राज्य सम्बन्धी (२) भोजन सम्बन्धी, (३) स्त्रियों के रूप सौन्दर्य सम्बन्धी, और (४) देश सम्बन्धी । विकथा समय का दुरुपयोग है।
(ख) कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ । इनकी उपस्थिति में आत्मचेतना कुण्ठित होती है । अतः ये भी प्रमाद हैं ।
(ग) राग-आसक्ति भी आत्म-चेतना को कुण्ठित करती है, इसलिए प्रमाद कही
जाती है।
(घ) विश्य-सेवन-पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन । (ङ) निद्रा-अधिक निद्रा लेना । निद्रा समय का अनुपयोग है ।
४. कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार प्रमुख मनोदशाएँ, जो अपनी तीव्रता और मन्दता के आधार पर १६ प्रकार की होती हैं, कषाय कही जाती हैं । इन कषायों के जनक हास्यादि ९ प्रकार के मनोभाव उपकषाय हैं । कषाय और उप. कषाय मिलकर पच्चीस भेद होते हैं ।
५. योग-जैन शब्दावली में योग का अर्थ क्रिया है जो तीन प्रकार की हैं(१) मानसिक क्रिया (मनोयोग), (२) वाचिक क्रिया (वचनयोग) (३) शारीरिक क्रिया (काय योग)।
__ यदि हम बन्धन के प्रमुख कारणों को और संक्षेप में जानना चाहें तो जैन परम्परा में बन्धन के मूलभूत तीन कारण राग ( आसक्ति ), द्वेष और मोह माने गये हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में राग और द्वेष इन दोनों को कर्म-बीज कहा गया है और उन दोनों का कारण मोह बताया गया है। यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं, फिर भी उनमें राग ही प्रमुख है। राग के कारण ही द्वेष होता है । जैन कथानकों के अनुसार इन्द्रभूति गौतम का महावीर के प्रति प्रशस्त राग भी उनके कैवल्य की उपलब्धि में बाधक रहा था । इस प्रकार राग एवं मोह ( अज्ञान ) ही बन्धन के प्रमुख कारण हैं। आचार्य कुन्दकुन्द राग को प्रमुख कारण बताते हुए कहते हैं, आसक्त आत्मा ही कर्म-बन्ध करता है और अनासक्त मुक्त हो जाता है, यही जिन भगवान् का उपदेश है। इसलिए कर्मों में आसक्ति मत रखो। लेकिन यदि राग ( आसक्ति) का कारण जानना चाहें तो जैन
१. उत्तराध्ययन, ३२७. २. समयसार, १५७.
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