SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन १७. स्वहस्तिकी क्रिया-स्वयं के द्वारा दूसरे जीवों को त्रास या कष्ट देने की क्रिया। इसके दो भेद हैं-१. जीव स्वहस्तिकी,-जैसे चाँटा मारना, २. अजीव स्वहस्तिकी, जैसे डण्डे से मारना। १८. नैसृष्टि की क्रिया--किसी को फेंककर मारना । इसके दो भेद हैं-१. जीवनिसर्ग क्रिया; जैसे किसी प्राणी को पकड़कर फेंक देने की क्रिया, २. अजीव-निसर्ग क्रिया; जैसे बाण आदि मारना । १९. आज्ञापनिका क्रिया-दूसरे को आज्ञा देकर कराई जानेवाली क्रिया या पाप कर्म। २०. वैदारिणी क्रिया- विदारण करने या फाड़ने से उत्पन्न होनेवाली क्रिया। कुछ विचारकों के अनुसार दो व्यक्तियों या समुदायों में विभेद करा देना या स्वयं के स्वार्थ के लिए दो पक्षों ( क्रेता-विक्रेता) को गलत सलाह देकर फूट डालना आदि । २१. अनाभोग क्रिया-अविवेकपूर्वक जीवन-व्यवहार का सम्पादन करना। २२. अनाकांक्षा क्रिया-स्वहित एवं परहित का ध्यान नहीं रखकर क्रिया करना। २३. प्रायोगिकी क्रिया-मन से अशुभ विचार, वाणी से अशुभ सम्भाषण एवं शरीर से अशुभ कर्म करके, मन, वाणी और शरीर शक्ति का अनुचित रूप में उपयोग करना। २४. सामुदायिक क्रिया-समूह रूप में इकट्ठे होकर अशुभ या अनुचित क्रियाओं का करना; जैसे सामूहिक वेश्या-नृत्य करवाना। लोगों को ठगने के लिए सामूहिक रूप से कोई कम्पनी खोलना अथवा किसी को मारने के लिए सामूहिक रूप में कोई षड्यंत्र करना आदि । मात्र शारीरिक व्यापाररूप ईपिथिक क्रिया, जिसका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है, को मिलाकर जैनविचारणा में क्रिया के पच्चीस भेद तथा आस्रव के ३९ भेद होते हैं। कुछ आचार्यों ने मन, वचन और काय योग को मिलाकर आस्रव के ४२ भेद भी माने हैं । आस्रव रूप क्रियाओं का एक संक्षिप्त वर्गीकरण सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध है । संक्षेप में वे क्रियाएँ निम्न प्रकार हैं। १. अर्थ क्रिया-अपने किसी प्रयोजन ( अर्थ ) के लिए क्रिया करना; जैसे अपने लाभ के लिए दूसरे का अहित करना । २. अनर्थ क्रिया-बिना किसी प्रयोजन के किया जाने वाला कर्म; जैसे व्यर्थ में किसी को सताना। १. तत्त्वार्थ सत्र,६६६. २. नव पदार्थ ज्ञानसार, पृ० १००. ३. स वकृतांग, २।२।१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003604
Book TitleJain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy