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कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
५९.
२. अधिकरणिका क्रिया - घातक अस्त्र-शस्त्र आदि के द्वारा सम्पन्न की जाने वाली हिंसादि की क्रिया । इसे प्रयोग क्रिया भी कहते हैं ।
३. प्राद्वेषिको क्रिया - द्वेष, मात्सर्य, ईर्ष्या आदि से युक्त होकर की जानेवाली
क्रिया ।
आदि के द्वारा दुःख
देना । यह दो प्रकार
।
४ पारितानिकी - ताड़ना, तर्जना की है - १. स्वयं को कष्ट देना और को कायक्लेश का समर्थक मानते हैं यदि उसका मन्तव्य कायाक्लेश का होता तो जैन दर्शन स्व-पारितापनिकी क्रिया को पाप के आगमन का कारण नहीं मानता ।
२. दूसरे को कष्ट देना उन्हें यहाँ एक बार पुन:
जो विचारक जैन दर्शन विचार करना चाहिए ।
५. प्राणातिपातकी क्रिया-हिंसा करना । इसके भी दो भेद हैं - १. स्वप्राणातिपातकी क्रिया अर्थात् राग-द्वेष एवं कषायों के वशीभूत होकर आत्म के स्वस्वभाव का घात करना तथा २. परप्राणातिपातकी क्रिया अर्थात् कषायवश दूसरे प्राणियों की हिंसा करना ।
६. आरम्भ क्रिया - जड़ एवं चेतन वस्तुओं का विनाश करना ।
७. पारिग्राहिकी क्रिया - जड़ पदार्थों एवं चेतन प्राणियों का संग्रह करना ।
८. माया क्रिया-कपट करना ।
९. राग क्रिया -- आसक्ति करना । यह क्रिया मानसिक प्रकृति की है इसे प्रेम प्रत्ययिकी क्रिया भी कहते हैं ।
१०. द्वेष क्रिया - द्वेष वृत्ति से कार्य करना ।
११. अप्रत्याख्यान क्रिया - असंयम या अविरति की दशा में होनेवाला कर्म अप्रत्याख्यान क्रिया है ।
१२. मिथ्यादर्शन क्रिया - मिध्यादृष्टित्व से युक्त होना एवं उसके अनुसार क्रिया
करना ।
१३. दृष्टिजा क्रिया - देखने की क्रिया एवं तज्जनित राग-द्वेषादि भावरूप क्रिया । १४. स्पर्शन क्रिया --स्पर्श सम्बन्धी क्रिया एवं तज्जनित राग-द्वेषादि भाव | इसे पृष्टिजा क्रिया भी कहते है ।
१५. प्रातीत्यकी क्रिया - जड़ पदार्थ एवं चेतन वस्तुओं के बाह्य संयोग या आश्रय से उत्पन्न रागादि भाव एवं तज्जनित क्रिया ।
१६. सामन्त क्रिया - स्वयं के जड़ पदार्थ की भौतिक सम्पदा तथा चेतन प्राणिज सम्पदा; जैसे पत्नियाँ दास, दासी, अथवा पशु पक्षी इत्यादि को देखकर लोगों के द्वारा की हुई प्रशंसा से हर्षित होना । दूसरे शब्दों में लोगों के द्वारा स्वप्रशंसा की अपेक्षा करना । सामन्तवाद का मूल आधार यही है ।
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