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________________ ५४ जैन कम सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन किये गये प्रवृत्तिमय सांसारिक कर्म से माना जाय तो वह बुद्धिसंगत नहीं होगा। जैन विचारणा के अनुसार निष्कामबुद्धि से युक्त होकर अथवा वीतरागावस्था में सांसारिक प्रवृत्तिमय कर्म का किया जाना सम्भव नहीं। तिलक के अनुसार, निष्काम बुद्धि से युक्त होकर युद्ध तक लड़ा जा सकता है । लेकिन जैन दर्शन को यह स्वीकार नहीं है । उसकी दृष्टि में अकर्म का अर्थ मात्र शारीरिक अनिवार्य कर्म ही अभिप्रेत है । जैन दर्शन की ईर्यापथिक क्रियाएँ प्रमुखतया अनिवार्य शारीरिक क्रियाएँ ही हैं । २ गीता में भी अकर्म का अर्थ शारीरिक अनिवार्य कर्म के रूप में गृहीत है (४।२१)। आचार्य शंकर ने अपने गीताभाष्य में अनिवार्य शारीरिक कर्मों को अकर्म की कोटि में माना है । जैन विचारणा में भी अकर्म में अनिवार्य शारीरिक क्रियाओं के अतिरिक्त निरपेक्ष भाव से जनकल्याणार्थ किये जानेवाले कर्म तथा कर्मक्षय के हेतु किया जानेवाला तप स्वाध्याय आदि भी समाविष्ट है। सूत्रकृतांग के अनुसार, जो प्रवृत्तियाँ प्रमादरहित हैं, वे अकर्म है। तीर्थंकरों की संघ-प्रवर्तन आदि लोककल्याणकारक प्रवृत्तियाँ एवं सामान्य साधक के कर्मक्षय (निर्जरा ) के हेतु किये गये सभी साधनात्मक कर्म अकर्म है। संक्षेप में जो कर्म राग-द्वेष से रहित होने से बन्धनकारक नहीं हैं, वे अकर्म ही हैं । गीता रहस्य में भी तिलक ने यही दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। कर्म और अकर्म का विचार करना हो तो वह इतनी ही दृष्टि से करना चाहिए कि मनुष्य को वह कर्म कहाँ तक बद्ध करेगा, करने पर भी जो कर्म हमें बद्ध नहीं करता, उसके विषय में कहना चाहिए कि उसका कर्मत्व अथवा बन्धकत्व नष्ट हो गया । यदि किसी भी कर्म का बन्धकत्व अर्थात् कर्मत्व इस प्रकार नष्ट हो जाय, तो फिर वह कर्म अकर्म हो हुआ-कर्म के बन्धकत्व से यह निश्चय किया जाता है कि वह कर्म है या अकर्म । जैन और बौद्ध आचारदर्शन में अर्हत् के क्रिया-व्यापार को तथा गीता में स्थितप्रज्ञ के क्रिया-व्यापार को बन्धन और विपाकरहित माना गया है, क्योंकि अर्हत् या स्थितप्रज्ञ में राग-द्वेष और मोहरूपी वासनाओं का पूर्णतया अभाव होता है। अतः उसका क्रिया-व्यापार बन्धनकारक नहीं होता और इसलिए वह अकर्म कहा जाता है । इस प्रकार तीनों आचारदर्शन इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि वासना एवं कषाय से रहित निष्काम कर्म अकर्म है और वासनासहित सकाम कर्म ही कर्म है, बन्धनकारक है। उपर्युक्त विवेचन से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कर्म-अकर्भ विवक्षा में कर्म का चैतसिक पक्ष ही महत्त्वपूर्ण है। कौन-सा कर्म बन्धनकारक है और कौन-सा कर्म बन्धनकारक नहीं है, इसका निर्णय क्रिया के बाह्यस्वरूप से नहीं वरन् क्रिया के मूल १. गीतारहस्य, ४।१६. (टिप्पणी) २. सत्रकृतांग २।२।१२. ३. गीता (शो०), ४।२१. ४. गीतारहस्य, पृ० ६८४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003604
Book TitleJain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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