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कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व
से मुक्त व्यक्ति के द्वारा आचरण करते हुए यदि हिंसा (प्राणघात ) हो जाये तो वह हिंसा नहीं है। अर्थात् हिंसा और अहिंसा, पाप और पुण्य मात्र बाह्य-परिणामों पर निर्भर नहीं होते, वरन् उसमें कर्ता को चित्तवृत्ति ही प्रमुख है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी स्पष्ट कहा गया है, भावों से विरत जीव शोकरहित हो जाता है, वह कमल-पत्र की तरह संसार में रहते हए भी लिप्त नहीं होता।२ गीताकार भी इसी विचार-दृष्टि को प्रस्तुत करते हुए कहता है-जिसने कर्म-फलासक्ति का त्याग कर दिया है, जो वासनाशून्य होने के कारण सदैव ही आकांक्षारहित है और आत्मतत्त्व में स्थिर होने कारण आलम्बनरहित है, वह क्रियाओं को करते हुए भी कुछ नहीं करता है। गीता का अकर्म जैन. दर्शन के संवर और निर्जरा से भी तुलनीय है । जैन दर्शन में संवर एवं निर्जरा के हेतु किया जानेवाला समस्त क्रिया-व्यापार मोक्ष का हेतु होने से अकर्म ही माना गया है। इसी प्रकार गीता में भी फलाकांक्षा से रहित होकर ईश्वरीय आदेश के पालनार्थ जो नियत कर्म किया जाता है, वह अकर्म ही माना गया है। दोनों में जो विचारसाम्य है, वह तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है। गीता और जैनागम आचारांग में मिलने वाला निम्न विचार-साम्य भी विशेष रूप से द्रष्टव्य है । आचारांगसूत्र में कहा गया है, 'अग्रकर्म और मूल कर्म के भेदों में विवेक रखकर ही कर्म कर। ऐसे कर्मों का कर्ता होने पर भी वह साधक निष्कर्म ही कहा जाता है । निष्कर्मता के जीवन में उपाधियों का आधिक्य नहीं होता, लौकिक प्रदर्शन नहीं होता। उसका शरीर मात्र योगक्षेम ( शारीरिक क्रियाओं) का वाहक होता है ।'४ गीता कहती है-आत्मविजेता, इन्द्रियजित् सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखनेवाला व्यक्ति कर्म का कर्ता होने पर निष्कर्म कहा जाता है। वह कर्म से लिप्त नहीं होता। जो फलासक्ति से मुक्त होकर कर्म करता है, वह नैष्ठिक शान्ति प्राप्त करता है। लेकिन जो फलासक्ति से बँधा हुआ है, वह कुछ नहीं करता हुआ भो कर्म-बन्धन से बँध जाता है। गीता का उपर्युक्त कथन सूत्र कृतांग के इस कथन से भी काफी निकटता रखता है-मिथ्यादष्टि व्यक्ति का सारा पुरुषार्थ फलासक्ति से युक्त होने के कारण अशुद्ध होता है और बन्धन का हेतु है । लेकिन सम्यक् दृष्टि व्यक्ति का सारा पुरुषार्थ शुद्ध है क्योंकि वह निर्वाण का हेतु है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों हो आचारदर्शनों में अकर्म का अर्थ निष्क्रियता विवक्षित नहीं है, फिर भी तिलक के अनुसार यदि इसका अर्थ निष्काम बुद्धि से
१. पुरुषार्थ सद्धयुपाय, ४५. २. उत्तराध्ययन, ३२ ९९. ३. गीता, ४।२०. ४. आचारांग, १२३।२।४, १।३।१।११०-देखिये आचारांग ( संतबाल ) परिशिष्ट, पृ० ३६.३७. ५. गीता, ५७,५।१२. ६. स प्रकृतांग, १।८।२२-२३.
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