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________________ जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन कर्म है और जो क्रिया-व्यापार राग-द्वेष और मोह से रहित होकर कर्त्तव्य या शरीरनिर्वाह के लिए किया जाता है, वह बन्धन का कारण नहीं है अतः अकर्म है। जिन्हें जैन दर्शन में ईर्यापथिक क्रियाएँ या अकर्म कहा गया है उन्हें बौद्ध परम्परा अनुपचित अव्यक्त या अकृष्ण-अशुक्ल कर्म कहती है और जिन्हें जैन-परम्परा साम्परायिक क्रियाएँ या कर्म कहती है, उन्हें बौद्ध परम्परा उपचित कर्म या कृष्ण-शुक्ल कर्म कहती है। इस सम्बन्ध में विस्तार से विचार करना आवश्यक है। $९ बौद्ध दर्शन में कर्म-अकर्म का विचार बौद्ध विचारणा में भी कर्म और उनके फल देने की योग्यता के प्रश्न को लेकर महाकर्म विभंग में विचार किया गया है ।' बौद्ध दर्शन का प्रमुख प्रश्न यह है कि कौन से कर्म उपवित होते हैं । कर्म के उपचित होने का तात्पर्य संचित होकर फल देने की क्षमता के योग्य होने से है । बौद्ध परम्परा का उपचित कर्म जैन परम्परा के विपाकोदयी कर्म से और बौद्ध परम्परा का अनुपचित-कर्म जैनपरम्परा के प्रदेशोदयीकर्म (र्यापथिक कर्म ) से तुलनीय है। महाकर्मविभंग में कर्म की कृत्यता और उपचितता के सम्बन्ध को लेकर कर्म का एक नतुर्विध वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। १. वे कर्म जो कृत ( सम्पादित ) नहीं हैं लेकिन उपचित ( फल प्रदाता ) हैंवासनाओं के तीव्र आवेग से प्रेरित होकर किये गये ऐसे कर्म-संकल्प जो कार्यरूप में परिणत नहीं हो पाये, इस वर्ग में आते हैं । जैसे किसी व्यक्ति ने क्रोध या द्वेष के वशीभूत होकर किसी को मारने का संकल्प किया हो, लेकिन वह उसे मारने की क्रिया को सम्पादित न कर सका हो । २. वे कर्म जो कृत भी हैं और उपचित हैं-वे समस्त ऐच्छिक कर्म जिनको संकल्पपूर्वक सम्पादित किया गया है, इस कोटि में आते हैं। अकृत उपचित कर्म और कृत उपचित कर्म दोनों शुभ और अशुभ हो सकते हैं । ३. वे कर्म जो कृत हैं लेकिन उपचित नहीं हैं-अभिधर्मकोष के अनुसार निम्न कर्म वृत हाने पर उपचित नहीं होते हैं अर्थात् अपना फल नहीं देते हैं - (अ ) वे कर्म जिन्हें संकल्पपूर्वक नहीं किया गया है, अर्थात् जो सचिन्त्य नहीं हैं, उपचित नहीं होते हैं। (ब) वे कर्म जो सचिन्त्य होते हुए भी सहसाकृत हैं, उपचित नहीं होते हैं। इन्हें हम आकस्मिक कर्म कह सकते हैं । आधुनिक मनोविज्ञान में इन्हें विचारप्रेरित कर्म ( आइडियो मोटर एक्टीविटी ) कहा जा सकता है। (स ) भ्रान्तिवश किया गया कर्म भी उपचित नहीं होता। (द ) कर्म के करने के पश्चात् यदि अनुताप या ग्लानि हो, तो उस पाप का प्रकाशन करके पाप-विरति का व्रत लेने से वह कृतकर्म उपचित नहीं होता। १. देखें-डेव्हलपमेन्ट आफ मॉरल फिलासफी इन इंडिया, पृ० १६८-१७४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003604
Book TitleJain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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