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कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व
जा सकता है । (१) उसकी बन्धनात्मक शक्ति के आधार पर और (२, उसकी शुभाशुभता के आधार पर । बन्धनात्मक शक्ति के आधार पर विचार करने पर हम पाते हैं हैं कि कुछ कर्म बन्धन में डालते हैं, और कुछ कर्म बन्धन में नहीं डालते हैं। बन्धक कर्मों को कर्म और अबन्धक कर्मों को अकर्म कहा जाता है । जैन दर्शन में कर्म और अकर्म के यथार्थ स्वरूप का विवेचन हमें सर्वप्रथम आचारांग एवं सूत्रकृतांग में रिलता है । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि कुछ कर्म को वीर्य ( पुरुषार्थ ) कहते हैं, कुल अकर्म को वीर्य ( पुरुषार्थ ) कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि कुछ विचारकों की दृष्टि में सक्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है, जबकि दूसरे विचारकों की दृष्टि में निष्क्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है । इस सम्बन्ध में महावीर अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि 'कर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा एवं अकर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा का अभाव' ऐसा नहीं मानना चाहिए। वे अयन्त सीमित शब्दों में कहते हैं कि प्रमाद कर्म है, अप्रमाद अकर्म है। ऐसा कहकर महावीर यह स्पष्ट कर देते हैं कि अकर्म निष्क्रियता नहीं, वह तो सतत जागरूकता है । अपमत्त अवस्था या आत्म-जागृति को दशा में क्रियाशीलता भी अकर्म हो जाती है जबकि प्रमत्त दशा या आत्म-जागृति के अभाव में निष्क्रियता भी कर्म (बन्धन ) बन जाती है। वस्तुतः किसी क्रिया का बन्धकत्व मात्र क्रिया के घटित होने में नहीं, वरन उसके पीछे रहे हुए कषाय-भावों एवं राग-द्वेष की स्थिति पर निर्भर है। जैन दर्शन के अनुसार, राग-द्वेष एवं कषाय ( जो कि आत्मा की प्रमत्त दशा है ) ही किसी क्रिया को कर्म बना देते हैं जबकि कषाय एवं आसक्ति से रहित होकर दिया हुआ कर्म भकर्म बन जाता है। महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जो आस्रव या बन्धन. कारक क्रियाएँ हैं वे ही अनासक्ति एवं विवेक से समन्वित होकर मुक्ति के साधन बन जाती हैं। इस प्रकार जैन विचारणा में कर्म और अकर्म अपने बाह्य स्वरूप की अपेक्षा कर्ता के विवेक और मनोवृत्ति पर निर्भर होते हैं। जैन दर्शन में बन्धन की दृष्टि से क्रियाओं को दो भागों में बांटा गया है-(१) ईर्यापयिक क्रियाएँ ( अकर्म ) और (२) साम्परायिक क्रियाएँ ( कर्म )। ईर्यापथिक क्रियाएँ निष्काम वीतरागदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति की क्रियाएँ हैं जो बन्धनकारक नहीं हैं और साम्परायिक क्रियाएँ आसक्त व्यक्ति की क्रियाएँ हैं जो बन्धनकारक हैं । संक्षेप में वे समस्त क्रियाएँ जो आस्रव एवं बन्ध की कारण हैं, कर्म हैं और वे समस्त क्रियाएँ जो संवर एवं निर्जरा की हेतु है, अकर्म हैं । जैन दृष्टि में अकर्म या ईर्यापथिक कर्म का अर्थ है-राग-द्वेष एवं मोह रहित होकर मात्र कर्तव्य अथवा शरीर-निर्वाह के लिए किया जानेवाला कर्म । और कर्म का अर्थ है राग-द्वेष एवं मोहसहित क्रियाएँ । जैन दर्शन के अनुमार जो क्रिया या व्यापार राग-द्वेष और मोह से युक्त होता है वह बन्धन में डालता है इसलिए वह १. सूत्रकृतांग, १।८।१-२. २, बही, शा३. ३. आचारांग, १।४।२।१.
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