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जैन, बौद्ध तथा गीता के कर्मसिद्धान्तों का तुलनात्मक अध्ययन
द्वारा उनका क्षय – यह दो ही मार्ग देखता है । लेकिन गीता पुरातन कर्मों का क्षय करने के लिए न केवल ज्ञान एवं भक्ति पर बल देती है, वरन् वह जैन विचारणा में प्रस्तुत संयम और निर्जरा के अन्य विविध साधनों - इन्द्रिय- संयम एवं मन, वाणी तथा शरीर का संयम, एकान्त सेवन, अल्प आहार, ध्यान, व्युत्सर्ग ( वैराग्य) आदि की भी विवेचना करती है । कहा गया है कि " हे अर्जुन ! विशुद्ध बुद्धि से युक्त, एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करनेवाला तथा अल्प आहार करनेवाला, जीते हुए मन, वाणो और शरीर वाला और दृढ़ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त पुरुष निरन्तर ध्यान-योग के परायण हुआ, सदैव वैराग्ययुक्त, अन्तःकरण को वश में करके तथा इन्द्रियों के शब्दादिक विषयों को त्यागकर और राग-द्वेषों को नष्ट करके तथा अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और संग्रह को त्यागकर, ममतारहित और शान्त अन्तःकरण हुआ, सच्चिदानन्दवन ब्रह्म में एकीभाव होने के योग्य हो जाता है । " " यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो गीताकार के इस कथन में संवर और निर्जरा के अधिकांश तथ्य समाविष्ट हैं । यहाँ गीता का दृष्टिकोण जैन विचारणा के अत्यन्त समीप आ जाता है ।
१०. निष्कर्ष :
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शन बंधन से मुक्ति के लिये दो उपायों पर बल देते हैं - नवीन बंध से बचने के लिये संयम और पुरातन बंधन से छूटने के लिये तप, ज्ञान भक्ति या ध्यान । जहाँ तक संयम की बात है, तीनों आचार-दर्शन उसे लगभग समान रूप से स्वीकार करते हैं। तीनों के लिये संयम का अर्थ केवल इन्द्रिय व्यापारों का निरोध न होकर उसके पीछे रही हुई आसक्ति का क्षय भी है । जहाँ तक पुरातन कर्मों से छूटने के साधन का प्रश्न है जैन-दर्शन तप पर, बौद्ध दर्शन ध्यान ( चित्त निरोध) पर तथा गीता ज्ञान एवं भक्ति पर अधिक बल देती है । लेकिन जैसा कि हमने देखा, जैन-दर्शन का तप ज्ञान समन्वित है तो गीता का ज्ञानमार्ग भी तप एवं संयम से युक्त है । बौद्ध दर्शन का ध्यान भी जैन-दर्शन और गीता दोनों को ही स्वीकृत है । जो भी अन्तर प्रतीत होता है, वह शब्दों का है, मूलात्मा का नहीं । जैन दर्शन में निर्जरा के साधन रूप जिस तप का विधान है, उसमें ज्ञान और ध्यान दोनों ही समाहित हैं। तीनों आचार-दर्शन साधक से यह अपेक्षा करते हैं कि वह संयम ( संवर) के द्वारा नवीन कर्मों के बन्धन को रोककर तथा ज्ञान, ध्यान और तपस्या के द्वारा पुरातन कर्मों का क्षय कर परमश्रेय को प्राप्त करे ।
१. गीता, १८/५१-५३.
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