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बन्धन से मुक्ति की ओर (संवर और निर्जरा)
देती है । हमें यहाँ जैन-दर्शन और गीता में स्पष्ट विरोध प्रतिभासित होता है। जैनविचारणा तप पर जोर देती है और गीता ज्ञान पर । लेकिन अधिक गहराई में जाने पर यह विरोध बहुत मामूली रह जाता है, क्योंकि जैनाचार-दर्शन में तप का मात्र शारीरिक या बाह्य पक्ष ही स्वीकार नहीं किया गया है, वरन् उसका ज्ञानात्मक एवं आंतरिक पक्ष भी स्वीकृत है । जैन-दर्शन में तप के वर्गीकरण में स्वाध्याय आदि को स्थान देकर उसे ज्ञानात्मक स्वरूप दिया गया है । यही नहीं, उत्तराध्ययन एवं सूत्रकृतांग में अज्ञानतप की तीव्र निन्दा भी की गई है । अतः जैन विचारक भी यह तो स्वीकार कर लेते हैं कि निर्जरा ज्ञानात्मक तप से होती है, अज्ञानात्मक तप से नहीं । वस्तुतः निर्जरा या कर्मक्षय के निमित्त ज्ञान और कर्म (तप) दोनों आवश्यक हैं । यही नहीं, तप के लिए ज्ञान को प्राथमिक भी माना गया है । पं० दौलतरामजी कहते है
कोटि जन्म तप तपैं ज्ञान बिन कर्म झरै जे ।
ज्ञानी के दिन माहिं त्रिगुप्ति तै सहज टरै ते ॥२ इस प्रकार जैनाचार-दर्शन ज्ञान को निर्जरा का कारण तो मानता है, लेकिन एकांत कारण नहीं मानता। जैनाचार-दर्शन कहता है मात्र ज्ञान निर्जरा का कारण नहीं है । यदि गीता के उपर्युक्त श्लोक को आधार मानें तो जहाँ गीता का आचार-दर्शन ज्ञान को कर्मक्षय (निर्जरा) का कारण मानता है, वहाँ जैन-दर्शन ज्ञान-समन्वित तप से कर्मक्षय (निर्जरा) मानता है, लेकिन जब गीताकार ज्ञान और योग (कर्म) का समन्वय कर देता है, तो दोनों विचारणाएँ एक दूसरे के निकट आ जाती है।
गीता पुरातन कर्मों से छूटने के लिये भक्ति को भी स्थान देती है । गीता के अनुसार यदि भक्त अपने को पूर्णतया निश्छल भाव से भगवान् के चरणों में समर्पित कर देता है तो भी वह सभी पुरातन पापों से मुक्त हो जाता है । गीता में श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि "तू सब धर्मों का परित्याग कर मेरी शरण में आ, मैं तुझे सभी पुरातन पापों से मुक्त कर दूंगा, तू चिन्ता मत कर ।"३ यदि तुलनात्मक दृष्टि से विवार करें तो यहाँ जैन-दर्शन और गीता का दृष्टिकोण भिन्न है। जैन-दर्शन पुरातन कर्मों से मुक्ति के लिए उनका भोग अथवा तपस्या के
१. (अ) उत्तराध्ययन, ९।४४. (ब) सूत्रकृतांग, १।८।२४. २. छहढाला, ४/५. ३. गीता, १८१६६.
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