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________________ ८४ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा आठ अनुयोग द्वारों की चर्चा करते हैं। पुनः हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि अनुयोगद्वार सत्र निश्चित ही तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य से किञ्चित् परवर्ती है और इसलिए उसमें ऐसा विकास सम्भव है। पुनः अनुयोगद्वारों की यह संख्या विभिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न रही है। तत्त्वार्थसूत्र में सम्यक् दर्शन के सन्दर्भ में आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा हुई है, जबकि अनुयोगद्वार सूत्र में यह चर्चा द्रव्य के सन्दर्भ में है। सम्यक् दर्शन जीव के किसी भाग विशेष में नहीं होता है अतः उसमें 'भाग' की चर्चा नहीं है । जबकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के किसी भाग विशेष में रह सकता है अतः द्रव्य की चर्चा के प्रसंगमें 'भाग' नामक अनुयोग (अनुगम) की चर्चा को गई है। षट्खण्डागम यापनीय आगम है तत्त्वार्थ से उसकी निकटता तत्त्वार्थ को उत्तर भारत की आगमिक धारा का ही ग्रन्थ सिद्ध करती है। षट्खण्डागम के अनुयोगद्वारों के नामों की निकटता तत्त्वार्थ की अपेक्षा अनुयोगद्वार सूत्र के निकट है, यह भी हमें देखना होगा । पुनः विषयों के बदलने के साथ अनुयोगद्वारों की संख्या में भिन्नता के संकेत श्वेताम्बरदिगम्बर दोनों परम्पराओं में मिलते हैं। षट्खण्डागम में ही ग्यारह, सोलह आदि अनुयोग द्वारों की चर्चा भी है और इसमें 'भाग' नामक अनुयोगद्वार, जो श्वेतबार आगमों में भी उल्लेखित है, मिलता है। प्रसंगानुसार अनुयोगद्वारों की संख्या में भिन्नता होने से तत्त्वार्थ और श्वेताम्बर आगमों में विरोध नहीं माना जा सकता है। दोनों में यदि एक ही प्रसंग में भिन्न-भिन्न संख्या बतायी गयो होती तो ही उनमें विरोध माना जा सकता था। (४) तत्त्वार्थभाष्य का आगम से विरोध दिखाते हए पं० फलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा यह भी कहा गया है कि जहाँ तत्त्वार्थ भाष्य में लोकान्तिक देवों की संख्या आठ मानी गई है वहाँ श्वेताम्बर आगमों में लोकान्तिक देवों की संख्या ९ मिलती है किन्तु आदरणीय पण्डितजी ने यह भ्रान्ति व्यर्थ ही खड़ी की है। श्वेताम्बर आगमों में लोकान्तिक देवों की संख्या ८ और ९ दोनों ही प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। स्थानांग में भी आठवें स्थान में आठ प्रकार के लोकान्तिक देवों की चर्चा १. सर्वार्थसिद्धि सम्पादक, पं० फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रस्तावना, पृ०, १९ एवं ३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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