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________________ ७० : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा है। इसके सिवाय वीरसेन उमास्वति के दूसरे ग्रन्थ 'प्रशमरति' से भी परिचित थे। क्योंकि उन्होंने जयधवला (पृ० ३६९ ) में 'अत्रोपयोगी श्लोकः' कहकर 'प्रशमरतिकी २५ वी कारिका उद्धृत की है। ५ अमृतचन्द्रने अपने तत्वार्थसार (पद्यबद्ध तत्त्वार्थसूत्र ) में भी भाष्यको उक्त कारिकाओं में से ३० कारिकाएँ नम्बरों को कुछ इधर उधर करके ले ली हैं और मुद्रित प्रति के पाठपर यदि विश्वास किया जाय तो उन्होंने उन्हें 'उक्तं च' न रहने देकर अपने ग्रन्थ का ही अंश बना लिया है। अमृतचन्द्र विक्रम की ग्यारहवीं सदी के लगभग हुए हैं और वे भी भाष्य से या उसकी उक्त कारिकाओं से परिचित थे। ६ अकलंक और वोरसेन के समान, उनसे भी पहले के पूज्यपार देवनन्दि के समक्ष भी तत्त्वार्थभाष्य रहा होगा। यद्यपि उन्होंने सर्वार्थसिद्धि में कहीं भाष्य का विरोध आदि नहीं किया है, फिर भी जब हम भाष्य और सर्वार्थसिद्धि को आमने सामने रखकर देखते हैं तब दोनों के वाक्य के वाक्य, पद के पद एक से मिलते चले जाते हैं भाष्य १. सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमित्येष त्रिविधो मोक्षमार्गः । तं पुरस्ताल्लक्षणतो विधानतश्च विस्तरेणोपदेक्ष्यामः । शास्त्रानुपूर्वी विन्यासार्थ तुद्देशमात्रमिदमुच्यते ।-१, १ २. चक्षुषा नो इन्द्रियेण च व्यंजनावग्रहो न भवति ।-१, १९ । ३. काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते जीव इति स स्थापनाजीवः।-१,५. ४. नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिताः शरीरोपकरणविभूषानुवर्तिन ऋद्धियशस्कामाः सात गौरवाश्रिता अविविक्तपरिवाराश्छेदशबलयुक्ता निर्ग्रन्था बकुशाः । कुशीला है और सब जगह उससे केवल यही सूचित किया है कि इतने प्रबन्ध या सूत्रभाग के द्वारा या इतने कथन से अमुक विषय का निरूपण किया गया । उक्त ३२ कारिकाओं के बाद आये हुए उक्त पद का यही अर्थ वहाँ ठीक बैठता है, दूसरा कोई अर्थ नहीं हो सकता। १. तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति के कर्ता सिद्धसेन गणिने 'प्रशमरति' को उमास्वाति वाचक का ही माना है-“यतः प्रशमरती अनेनैवोक्तन्" "वाचकेन त्वेतदेव बलसंज्ञया प्रशमरतो (उपात्तम् ।" अ० ५/६ तथा ९/६ की भाष्यवृत्ति। और प्रशमरति की १२० वीं कारिका 'आचार्य आह' कहकर श्रीजिनदास महत्तर ने निशीथचूर्णि में उद्धृत की है और जिनदास महत्तर विक्रम की आठवीं सदी के हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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